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एकला चलो की राह पर बसपा

देश में अगले साल लोकसभा चुनाव होने वाला है,लेकिन सियासी बिसात अभी से बिछाई जा रही है। एक तरफ विपक्षी राजनीतिक दल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फिर से सत्ता में आने से रोकने के लिए मशक्कत रहे हैं ,तो दूसरी तरफ बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने अपने 67वें जन्मदिन पर मीडिया को संबोधित करते हुए एलान किया कि इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में वह अकेले चुनाव लड़ेगी। कांग्रेस या अन्य किसी राजनीतिक दल के साथ गठबंधन नहीं करेगी। मायावती ने आरोप लगाया कि कांग्रेस सहित कई विपक्षी दल अफवाह फैला रहे हैं कि बसपा विपक्षी गठबंधन में शामिल होगी। जिसको खारिज कर उन्होंने कहा कि बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस और सपा सहित कई राजनीतिक दलों के साथ समय-समय पर गठबंधन किए,लेकिन पंजाब को छोड़कर उन्हें किसी सहयोगी दल (खासकर सपा और कांग्रेस) का वोट नहीं मिला है,जबकि उनका वोट बैंक कांग्रेस और दूसरे राजनीतिक दलों को प्राप्त हुआ है। अतः गठबंधन से बीएसपी को राजनीतिक नुकसान हुआ है। इसीलिए बीएसपी अकेले दम पर आगामी चुनाव लड़ेगी। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या बसपा को गठबंधन कर चुनाव लड़ने का वाकई नुकसान उठाना पड़ा है ?

राजनीतिक जानकारों का मानना है कि पिछले तीन दशक के सियासी करियर में बसपा को गठबंधन कर चुनावी मैदान में उतरने का उसे हमेशा फायदा मिला है। बसपा तीन बार उत्तर प्रदेश में अलग-अलग दलों के साथ मिलकर चुनावी मैदान में उतरी है, जिसमें उसे हर बार लाभ ही नहीं बल्कि सत्ता की बुलंदी तक पंहुचा दिया,वहीं उत्तर प्रदेश से बाहर बसपा को छत्तीसगढ़ से लेकर पंजाब और बिहार तक में गठबंधन कर चुनाव लड़ने का फायदा मिला है,हालांकि, बसपा का गठबंधन किसी भी पार्टी से लंबा नहीं चल सका है। बसपा का सियासी आधार देश भर में रहा है, लेकिन उसकी प्रयोगशाला उत्तर प्रदेश रही है। बसपा को शुरू के दो चुनाव में कोई सफलता नहीं मिली,लेकिन साल 1991 के विधानसभा चुनाव में बसपा का प्रदेश में खाता खुला और बसपा के 12 विधायक जीतने में कामयाब रहे थे। इस चुनाव से बसपा को प्रदेश में अपने लिए सियासी उम्मीद नजर आई और दलित समुदाय के अंदर एक नई राजनीतिक चेतना जागी। इसके बाद ही कांशीराम ने गठबंधन की सियासी राह पकड़ी और बसपा को सियासी बुलंदियों पर पहुंचा दिया। बहुजन समाज पार्टी ने सबसे पहले समाजवादी पार्टी से गठबंधन किया था।

अयोध्या में बाबरी विध्वंस के बाद उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार गिर गई, जिसके चलते साल 1993 में विधानसभा चुनाव हुए। राम मंदिर लहर में भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए कांशीराम और मुलायम सिंह यादव ने हाथ मिलाया। बसपा-सपा ने मिलकर भाजपा का प्रदेश से सफाया कर दिया था। उस समय सपा 256 सीटों पर चुनाव लड़कर 109 पर जीत दर्ज की तो बसपा 164 सीट पर लड़कर 67 सीटें अपने नाम किया था। बसपा 12 से 67 सीटों पर पहुंच गई और सपा को 109 सीटें मिलीं थी। मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने, लेकिन 1995 में सपा-बसपा का गठबंधन टूट गया। हालांकि, 1993 में सपा के गठबंधन का फायदा यह रहा कि बसपा पहली बार सत्ता के सिंहासन तक पहुंची थी। मायावती 1995 में पहली बार सूबे की मुख्यमंत्री बनीं, लेकिन ऐसा भाजपा के समर्थन से हो सका था सपा से गठबंधन टूट जाने के बाद बसपा ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई थी।हालांकि मायावती की सरकार करीब 6 महीने बाद गिर गई, जिसके चलते उत्तर प्रदेश में साल 1996 में विधानसभा चुनाव हुए। इस चुनाव में बसपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा था। सपा से गठबंधन की तरह कांग्रेस के साथ चमत्कारी नहीं रहा, लेकिन बसपा के वोटों में जबरदस्त इजाफा हुआ था। बसपा 300 सीटों पर लड़कर 66 और कांग्रेस 125 सीटों पर लड़कर 33 सीटें जीतने में सफल रही थी। साल 1991 में 10.26 फीसदी वोट के साथ 12 विधानसभा सीटों पर सिमटी बसपा ने 1996 में 27.73 मत प्रतिशत के साथ 67 सीटों पर कब्जा जमा जमाया था। विधानसभा चुनाव के बाद बसपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन तोड़ लिया और 1997 में भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना ली, लेकिन 6 महीने के बाद गठबंधन टूट गया था।

इसी तरह से साल 2002 के चुनाव में एक बार फिर किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला, जिसके चलते बसपा ने फिर भाजपा के समर्थन से सरकार बनाई और मायावती एक बार फिर मुख्यमंत्री बनीं थी। इस तरह गठबंधन की सीढ़ियों के सहारे आगे बढ़ती बसपा उत्तर प्रदेश में साल 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब हो गई, लेकिन 5 साल के बाद साल 2012 में सत्ता से बेदखल होने के बाद लगातार पार्टी का ग्राफ लगातार गिर रहा है। हालत यह हो गई कि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा का खाता भी नहीं खुला और 2017 के विधानसभा चुनाव में वह 19 सीटों पर सिमट गई। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा का सफाया हो गया था और पार्टी के एक भी सांसद नहीं जीत सके थे।

ऐसे में 26 साल बाद 2019 में बसपा गठबंधन की राह पकड़ी और साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा-सपा-आरएलडी के साथ मिलकर चुनावी मैदान में उतरीं,लेकिन मायावती को इसका फायदा मिला था,इसके कुछ दिनों बाद मायावती ने सपा और आरएलडी के साथ गठबंधन तोड़ लिया था।
बसपा को इस चुनाव में गठबंधन से ही दोबारा सियासी संजीवनी मिली थी। इसके बाद 2022 के चुनाव में मायावती ने किसी भी दल के साथ कोई गठबंधन नहीं किया और राजनीतिक हश्र सबके सामने है। बसपा के एक ही विधायक जीत सके और वोट प्रतिशत गिरकर काफी नीचे आ गया,आंकड़ों पर गौर करें तो बसपा का वोट बैंक साल 2012 में करीब 26 फीसदी, 2017 में 22.4 और 2022 में 12.7 फीसदी पर पहुंच गया है। तीनों ही विधानसभा चुनाव में बसपा प्रमुख मायावती किसी भी दल के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ी और सियासी हश्र सबके सामने हैं और 2024 के चुनाव में एक बार फिर एकला चलो की राह पर है।

अन्य राज्यों में बसपा को मिला फायदा

 

बसपा ने उत्तर प्रदेश से बाहर के राज्यों में गठबंधन की राह पर कदम बढ़ाया और उसका सियासी लाभ मिला। पंजाब में बसपा और शिरोमणि अकाली दल के बीच दो बार गठबंधन हुए हैं और दोनों ही बार बसपा को सियासी लाभ मिला है। बसपा 1996 के लोकसभा चुनाव में अकाली दल के साथ मिलकर लड़ी थी और कांग्रेस का सफाया कर दिया था। 1996 में पंजाब की 13 में से 11 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की थी। बसपा चुनाव में सभी तीन सीटों और अकाली दल 10 में से 8 सीटें जीतने में सफल रही थी। इसके बाद बसपा ने 26 साल के बाद 2022 में एक बार फिर बसपा-अकाली मिलकर चुनाव लड़ी और बसपा अपना एक विधायक बनाने में सफल रही है। इसके अलावा बसपा को बिहार, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ में बसपा को गठबंधन कर चुनाव लड़ने का फायदा मिला है। साल 2018 में कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में बसपा-जेडीएस ने साथ मिलकर लड़ा था,जिसमें एक प्रत्याशी ने चुनाव जीतने में सफलता पाई थी। कांग्रेस और जेडीएस गठबंधन ने सत्ता संभाली और एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने थे तो बीएसपी भी सरकार में शामिल हुई इकलौते विधायक को मंत्री बनाया गया था। इसी तरह साल 2018 में छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में मायावती ने अजित जोगी की पार्टी जेसीसी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था,जिसमें बसपा को जोगी के साथ गठबंधन करने का लाभ मिला था और उसके दो विधायक जीतकर आए।

इसी तरह 2022 के बिहार चुनाव में उपेंद्र कुशवाहा की अगुवाई में बने डेमोक्रेटिक सेकुलर फ्रंट का बसपा हिस्सा बनी थी। जिसमें कुशवाहा खाता नहीं खोल सके जबकि बसपा अपना एक विधायक बनाने में सफल रही थी। हालांकि, बसपा के टिकट पर जीते विधायक ने बाद में जेडीयू का दामन थाम लिया था।इन्हीं सब बातों को लेकर विशेषज्ञों का कहना है कि बसपा ने उत्तर प्रदेश से लेकर पंजाब, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और बिहार तक में जब-जब गठबंधन किया, तब-तब उसे सियासी फायदा मिला है। ऐसे में मायावती का यह कहना कि गठबंधन का लाभ नहीं मिला तो यह बात उचित नहीं लग रही, क्योंकि चुनाव नतीजों से ही बात साफ हो जा रही है। वहीं, बसपा के अकेले चुनावी मैदान में भी उतरने से नतीजे सबके सामने हैं। बसपा का सियासी आधार सिमटता जा रहा है, लेकिन मायावती ने तय किया है कि वो किसी भी दल के साथ गठबंधन करने के बजाय अकेले ही चुनावी मैदान में उतरेगी

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