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टॉम्ब ऑफ सैंड को बुकर पुरस्कार

  •     वीरेंद्र यादव, प्रसिद्ध आलोचक

हिंदी की जानी-मानी कथाकार और उपन्यासकार गीतांजलि श्री को उनके उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘टॉम्ब ऑफ सैंड को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार दिया जाना हिंदी सहित समूचे भारतीय साहित्य के लिए गौरव का क्षण है। यह पहली बार है जब मूल रूप से भारतीय भाषा में लिखे गए एक उपन्यास को यह अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। अपने कहन व कथन में गीतांजलि श्री मौलिक मुहावरे की कथाकार हैं। उनका विषय-विस्तार कस्बे की देशजता के साथ-साथ वैश्विक सरोकारों से युक्त है। देश में सांप्रदायिकता की विभाजक मनोदशा, स्त्री-नियति से लेकर विश्वस्तरीय आतंकवाद, सब कुछ उनकी रचनात्मक चिंता में शामिल रहा है।

पुरस्कृत उपन्यास ‘रेत समाधि’ की कथा मां-बेटी के जिस स्त्री-युग्म के माध्यम से रची गई है, वह उत्तर भारतीय हिंदी समाज की पुरुष-सत्ता का विलोम है। स्त्री-युग्म का इस्तेमाल गीतांजलि ने पहले भी अपने उपन्यास माई और तिरोहित में किया है। ‘रेत समाधि’ में वह अपनी कथायुक्ति के माध्यम से सहज रूप से स्वीकृत पुरुष आधिपत्य और स्त्री की अदृश्यता को दृश्यमान करती हैं। पति के न रहने पर जिस वृद्धा मां को परिवार की मुखिया होना था, उसकी ओर परिवार द्वारा पीठ दिखाने के विरुद्ध मां का दीवार की ओर मुंह कर लेना और फिर ‘नहीं उठूंगीं’ से लेकर ‘नई उठूंगीं’ तक का रूपांतरण यथार्थ और कला का खिलंदड़ा सहमेल है। मां का इस नई स्त्री में तब्दील होना और बेटी का इस प्रक्रिया में निमित्त होना पुरुष प्रधान समाज की सरहद का अतिक्रमण है। सरहद इस उपन्यास का बीजपद है। उपन्यास कथा में मां परिवार की सरहद ही नहीं, देश की सरहद के पार जाकर भी विभाजन पूर्व के दिनों को नाटकीय घटनाक्रम के रूप में जीती है।

दरअसल, यह उपन्यास कथावस्तु में कई सरहदों को तोड़ता है। ये सरहदें घर, परिवार, समाज, धर्म, परंपरा, लिंग से लेकर देश की सरहद के पार तक विस्तृत है। आधुनिक मध्यवर्गीय परिवार के मूल्यगत विघटन की कथा कहते हुए वह अपने वर्ग की रक्षक की भूमिका में न होकर उसकी निर्मम आलोचना करती हैं। वह औपनिवेशिक आधुनिकता की आलोचना के बरक्स देशज आधुनिकता का औपन्यासिक विमर्श न रचकर भारतीय सामंती समाज की आधुनिकता की फांक को उजागर करती हैं। वह अपनी कथा-प्रविधि में दीवार और दरवाजा सरीखी निर्जीव वस्तुओं को भी जिन कथा उपादानों में तब्दील कर देती हैं। इस कथा में किन्नर भी शामिल है और हाशिये का समाज भी अपनी विविधता और बहुलता के साथ।
वह अपनी कथा का जो मौलिक मुहावरा रचती हैं, वह अभ्यस्त रुचि के पाठकों से किंचित मशक्कत की चाहत रखता है। दो राय नहीं कि गीतांजलि सरल मुहावरे की कथाकार नहीं हैं। उनकी कथा जितनी मुखर है, उसमें शब्दों के बीच उतने ही मौन और संकेत हैं। यह साहित्य का भिन्न आस्वाद है। इन्हें न ग्रहण कर पाना अभिव्यक्ति की दुरुहता न होकर पाठकीय अधैर्य अधिक है। दरअसल, अब वैश्विक स्तर पर उपन्यास जिन प्रविधियों को अपना रहा है, उसमें यथार्थ और कला का जो नया रूप उभर रहा है, वह गंभीर पाठ की चाहत रखता है।

बुकर पुरस्कार की ज्यूरी ने इसे उचित ही भारत का बेहतरीन उपन्यास बताते हुए देश-विभाजन से जोड़ा। इसकी बहुस्वरता और बहुस्तरीयता का स्वीकार हिंदी कथा संरचना के नवोन्मेष की स्वीकृति है। वर्तमान विभाजनकारी समय में रेत समाधि विघटन के विरुद्ध एक रचनात्मक हस्तक्षेप है। यह भी सुखद है कि सत्ता संरचना का यह प्रति-विमर्श जिस उल्लास और उम्मीद के मुहावरे में अभिव्यक्त हुआ है, वह हिंदी उपन्यास की नई सामर्थ्य का द्योतक है। गीतंजलि श्री द्वारा पुरस्कार स्वीकार करते हुए यह कहना कि इस पुरस्कार का मिलना ‘उदासी और अवसादयुक्त’ भी है, उपन्यास के निहितार्थ को उजागर करता है। ‘रेत समाधि’ एक ऐसे शोकगीत सरीखा है, जहां अवसाद के बीच उम्मीद की किरण भी है। यह जिस समाज का उपन्यास है, वह एकरंगी न होकर बहुरंगी है। यहां हर्ष-विषाद, संपन्नता और विपन्नता का सहमेल है। यह पुरस्कार हिंदी के साथ-साथ समूचे दक्षिण एशिया के साहित्य के लिए एक अच्छी शुरुआत इसलिए भी है कि इस समूचे भू-भाग का जीवन, संस्कृति और उसका साहित्य अभी तक वृहत्तर दुनिया से ओझल रहा है। अपने इस उपन्यास के माध्यम से गीतांजलि श्री ने इस सरहद का भी विस्तार किया है।

 

साभार : ‘हिंदुस्तान

 

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