आजादी की 75वीं वर्षगांठ पर गुजरात सरकार ने ‘रीमिशन पॉलिसी’ के तहत बिलकिस बानो के दोषियों की रिहाई का मामला लगातार सुर्ख़ियो में बना हुआ है। देशभर में सवाल भी उठाए जा रहे है। देश के कई राज्यों में विरोध विरोध प्रदर्शन भी किए जा रहे है। इसके अलावा महिला संगठन, मानवाधिकार कार्यकर्ता और नागरिक समाज के लोगों समेत 6 हजार से अधिक नागरिकों ने देश की सर्वोच्च न्यायालय से अपील की है कि, वो बिलकिस बानो मामले में बलात्कार और हत्या के लिए दोषी करार दिये गए 11 व्यक्तियों की सजा माफ करने के निर्णय को फौरन रद्द करने का निर्देश दे।जिस पर सर्वोच्च न्यायालय सुनवाई करने को तैयार हो गया है।
इस अपील के लिए एक संयुक्त बयान जारी किया गया है, इसमें कहा गया है कि,मानव अधिकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक संयुक्त बयान में कहा गया है कि 15 अगस्त, 2022 की सुबह अपने स्वतंत्रता दिवस के दिन में भारत के प्रधानमंत्री ने महिलाओं के अधिकारों, गरिमा और ‘नारी शक्ति’ की बात की थी लेकिन उसी दोपहर, न्याय के लिए अपने लंबे और कठिन संघर्ष करने वाली ‘नारी शक्ति’ की मिसाल बिलकिस बानो को पता चला कि उसके परिवार, उसकी 3 साल की बेटी की हत्या करने वाले, उसके साथ सामूहिक बलात्कार कर मरने के लिए छोड़ देने वाले अपराधी आज़ाद हो गए हैं। इसके साथ सामूहिक बलात्कार और हत्या के दोषी 11 लोगों की सजा माफ करने से हर उस बलात्कार पीड़िता पर हतोत्साहित करने वाला प्रभाव पड़ेगा जिन्हें न्याय व्यवस्था पर भरोसा करने, न्याय की मांग करने और विश्वास करने को कहा जाता है। इसमें यह भी कहा गया है, कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, केंद्रीय जांच एजेंसी द्वारा किए गए जांच और केस चलने वाले मामले में केंद्र सरकार की सहमति के राज्य सरकार द्वारा कोई छूट नहीं दी जा सकती है। यदि केंद्र सरकार द्वारा इस तरह की रियायत पर विव्हर किया गया, या इसकी अनुमति दी गई, तो यह महिला शक्ति, बेटी बचाओ, महिलाओं के अधिकारों और पीड़ितों के लिए न्याय के दिखावे के खोखलेपन को उजागर करता है। इसलिए यह बयान देश के सर्वोच्च न्यायालय से आग्रह करता है कि से न्याय के साथ हुए इस गंभीर खिलवाड़ को रोके।
इस बयान को जारी करने वालों में सैयदा हमीद, जफरुल इस्लाम खान, रूपरेखा, देवकी जैन, उमा चक्रवर्ती, सुभाषिनी अली, कविता कृष्णन, मैमूना मुल्ला, हसीना खान, रचना मुद्राबाईना, शबनम हाशमी और अन्य शामिल हैं। नागरिक अधिकार संगठनों में सहेली विमेंस रिसोर्स सेंटर, गमन महिला समूह, बेबाक कलेक्टिव, ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव विमेंस एसोसिएशन, उत्तराखंड महिला मंच और अन्य संगठन शामिल हैं।बयान में यह भी कहा गया है कि,‘हम मांग करते हैं कि न्याय व्यवस्था में महिलाओं के विश्वास को बहाल किया जाए। हम इन 11 दोषियों की सजा माफ करने के फैसले को तत्काल वापस लेने और उन्हें सुनाई गई उम्रकैद की सजा पूरी करने के लिए जेल भेजने की मांग करते हैं। सजा माफी का निर्णय तत्काल वापस लिया जाए। बयान में यह भी कहा है कि हत्या और बलात्कार के इन दोषियों को सजा पूरी करने से पहले रिहा करने से महिलाओं के प्रति अत्याचार करने वाले सभी अपराधियों के मन में दंडित किए जाने का डर कम हो जाएगा।
गौरतलब है कि,गुजरात के भाजपा सरकार के इस सजा माफी फैसले का विरोध देश के कई राज्यों और शहरों में देखने को मिल रहा है। अदालत से अपील के अलावा विरोध स्वरूप कई जगह गुजरात सरकार के पुतले फूकें जा रहे हैं, रिहाई के खिलाफ लोग धरना दे रहे तो, कहीं आम लोगों ने इसे सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक चल रहे हस्ताक्षर अभियान से भी जोड़ा है।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में , 21 मई की शाम बिलकिस बानो के अपराधियों की रिहाई का कड़ा विरोध देखने को मिला। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के लंका गेट पर सैकड़ों की संख्या में छात्रों, पूर्व छात्रों और आम लोगों ने बिलक़ीस बानो के समर्थन में हस्ताक्षर अभियान चलाया और रविदास चौराहे तक एकजुटता दिखाते हुए मार्च भी निकाला गया। ये आयोजन जॉइंट ऐक्शन कमेटी बीएचयू और दखल संगठन के नेतृत्व में किया गया, जिसमें छात्र संगठन के अलावा सामाजिक और महिलावादी कार्यकर्ताओं ने भी सहयोग दिया।
इससे पहले को ही हरियाणा के पानीपत में अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की महिला और पुुरुष सदस्यों ने संविधान चौक पर एकत्र होकर गुजरात सरकार का पुतला फूंका। यहां उपस्थित महिलाओं ने गुजरात सरकार के माफी के आधार की निंदा करते हुए दोषियों की रिहाई को कानून का मजाक उड़ाने जैसा बताया। 19 अगस्त को तो मध्य प्रदेश के गुना में ऑल इंडिया महिला सांस्कृतिक संगठन ने बिलकिस के दोषियों की रिहा के खिलाफ अखिल भारतीय विरोध दिवस मनाया और गुजरात सरकार के गैर लोकतांत्रिक और महिला विरोधी रवैया के खिलाफ धरना प्रदर्शन किया। संगठन ने इस फैसले की कड़ी निंदा करते हुए इसे सरकार द्वारा न्याय व्यवस्था का मजाक बताया।
कुछ ऐसे ही प्रदर्शन और धरने पूर्वर्ती राज्य मेघालय से लेकर झारखंड के बोकारो तक में देखने को मिले। एक ओर सभी समाजिक संगठन और कार्यकर्ता रिहाई के इस फैसले पर कड़ी आपत्ति जता रहे हैं, तो वहीं कानून के जानकार और खुद बिलक़ीस मामले में फैसला सुनाने वाले जज भी इसकी वजह समझ नहीं पा रहे। बिलकिस बानो को न्याय देने वाले जस्टिस यूडी साल्वी (रिटायर्ड) और जस्टिस मृदुला भाटकर के बयान भी सामने आए हैं। जस्टिस साल्वी ने ही गैंगरेप के इस मामले के 11 दोषियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। वहीं जस्टिस मृदुला भाटकर ने इस फैसले को बरकरार रखा था।
जिस पर बीतती है, वही बेहतर जानता है:जस्टिस साल्वी
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस साल्वी ने कहा है कि इस मामले में पीड़िता बिलकिस ने काफी हिम्मत दिखाई थी। जस्टिस साल्वी के अनुसार ‘जिस पर बीतती है, वही बेहतर जानता है।’ वहीं जस्टिस मृदुला भाटकर का कहना है कि इस मामले में न्यायिक व्यवस्था के तीनों ही स्तर पर कानून का पालन किया गया। उन्होंने कहा कि सेशन कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने लोगों को न्याय देने का काम किया है। एक रिपोर्ट में कई वरिष्ठ सेवानिवृत्त न्यायाधीशों ने इस फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए इसे रेप सर्वाइवर के लिए एक नया ख़तरा बताया है, वहीं कई इसे रेप के क़ानून का रेप होने जैसा मान रहे हैं। किसी न्यायाधीश ने इसे मानवीय मामला कहा है, तो कोई इसे न्याय का मज़ाक़ बनाने जैसा कह रहा है। कुल मिलाकर देखें तो, ये फैसला किसी के गले से नीचे नहीं उतर रहा। कई लोगो इसे प्राकृतिक न्याय की अवधारणा के लिए तगड़ा झटका बता रहे हैं। क्योंकि इस मामले में पीड़िता को घटना के बाद इंसाफ पाने की जद्दोजहद में भी प्रताड़ना के लंबे दौर से गुजरना पड़ा था। बाकायदा साक्ष्य मिटाने के भी प्रयास किए गए थे जिनमें पुलिसकर्मियों और डॉक्टरों को दोषी पाया गया था। केस को गुजरात से मुंबई शिफ्ट किया गया था ताकि पीड़िता निडर होकर गवाही दे सके। ऐसे में ये सवाल उठना लाजमी है कि क्या इस मामले में वर्ष 2014 की नीति के बजाय वर्ष 1992 की नीति के आधार पर फैसला लेना सही था।
जघन्य अपराध के दोषियों को माफी नहीं
जानकारी के मुताबिक, इस फैसले पर पहुँचने के लिए समिति ने गुजरात सरकार की 1992 की उस सज़ा-माफ़ी नीति को आधार बनाया है जिसमें किसी भी श्रेणी के दोषियों को रिहा करने पर कोई रोक नहीं थी। वहीं गुजरात सरकार ने ही साल 2014 में सज़ा-माफ़ी की एक नई नीति बनाई जिसमें कई श्रेणी के दोषियों की रिहाई पर रोक लगाने के प्रावधान हैं। इस नीति में कहा गया है कि बलात्कार और हत्या के लिए दोषी पाए गए लोगों को सज़ा-माफ़ी नहीं दी जायेगी। इस नीति में ये भी कहा गया कि अगर किसी दोषी के मामले की जांच सीबीआई ने की है तो केंद्र सरकार की सहमति के बिना राज्य सरकार सज़ा-माफ़ी नहीं कर सकती। अगर सज़ा-माफ़ी के लिए इस समिति के प्रावधानों को आधार बनाया गया होता तो ये साफ़ है कि इस मामले के दोषियों को सज़ा-माफ़ी नहीं मिल सकती थी।यही नहीं, केंद्रीय गृह मंत्रालय की ताजा गाइडलाइन भी साफ कहती है कि आजीवन कारावास पाए कैदियों और बलात्कारियों को माफी नहीं दी जानी चाहिए। इसके बावजूद गुजरात सरकार ने इन अपराधियों को छोड़ने का फैसला किया, जो इसे प्रधानमंत्री के महिला सम्मान के आह्वान से उलट महिलाओं की सुरक्षा से खिलवाड़ की ओर इशारा करते हैं। बिलकिस ने खुद इसे न्याय का दुखद अंत बताया है।
निर्भया मामला आने के बाद कानून को और सख्त बनाया गया ताकि देश में बलात्कार को रोका जा सके और आरोपी में डर पैदा हो लेकिन गुजरात सरकार का ये फैसला और फिर अपराधियों की रिहाई का जश्न निश्चित ही महिलाओं के खिलाफ अपराध को बढ़ावा देने जैसा प्रतीत होता है। ऐसे में जब देश में लगभग हर 15 मिनट में एक बलात्कार हो रहा है, मामलों को न्यायिक प्रक्रिया से निपटाए जाने की रफ्तार बहुत धीमी है। तो न्यायालयों में महिलाओं की लड़ाई वैसे ही बहुत मुश्किल हो जाती है, फिर इस मामले में तो अपराध की जघन्यता सोच के भी परे है।
गौरतलब है कि,बिलकिस बानो उस वक़्त बिलकिस महज़ 20 साल की थीं, जब 2002 के गुजरात दंगों के दौरान अहमदाबाद के पास रणधी कपूर गाँव में एक भीड़ ने उनके परिवार पर हमला किया था। इस दौरान पाँच महीने की गर्भवती बिलक़ीस बानो के साथ गैंगरेप किया गया। उनकी तीन साल की बेटी सालेहा की भी बेरहमी से हत्या कर दी गई। इस दंगे में बिलकिस बानो की माँ, छोटी बहन और अन्य रिश्तेदार समेत 14 लोग मारे गए थे।मामले में 21 जनवरी, 2008 को मुंबई की स्पेशल कोर्ट ने 11 लोगों को हत्या और गैंगरेप का दोषी मानते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी। इस मामले में पुलिस और डॉक्टर सहित सात लोगों को छोड़ दिया गया था। सीबीआई ने बॉम्बे हाई कोर्ट में दोषियों के लिए और कड़ी सजा की मांग की थी। इसके बाद बॉम्बे हाई कोर्ट ने मई, 2017 में बरी हुए सात लोगों को अपना दायित्व न निभाने और सबूतों से छेड़छाड़ को लेकर दोषी ठहराया था। उस समय राज्य में भजपा की सरकार थी। अब दोषियों की रिहाई के समय में भी एक बार फिर गुजरात में भाजपा की सरकार है, जिसे लेकर सवाल उठना लाजमी है।