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बिहार में बड़े राजनीतिक उथल पुथल के संकेत

आगामी लोकसभा चुनाव में अभी तीन साल  बाकी हैं, लेकिन बिहार में पीएम मटेरियल की बात पर राजनीति गर्म है। बीते दिनों जनता दल यूनाइटेड संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पीएम मटेरियल बता डाला। उनके इस बयान बाद जनता दल(यू) नेताओं ने नीतीश कुमार की तारीफों के कसीदे पढ़ने शुरू कर दिए। जेडीयू के प्रधान महासचिव के .सी .त्यागी ने कहा ‘नीतीश कुमार प्रधानमंत्री बनने लायक हैं। उनमें वो सारे गुण हैं जो प्रधानमंत्री में होने चाहिए। पार्टी अध्यक्ष ललन सिंह ने भी कहा कि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री के दावेदार नहीं हैं, लेकिन उनमें तमाम काबिलियत हैं।’

राजनीतिक गलियारों में इस बयानबाजी के चलते कयास लगाये जा रहे हैं कि नीतीश कुमार एक बार फिर से भाजपा गठबंधन तोड़ सकते हैं। इन कयासों के पीछे पिछले कुछ दिनों के दौरान दिए गए नीतीश कुमार के वे बयान हैं जिन्हें लेकर भाजपा असहज तो विपक्ष प्रसन्न होता दिखा है। नीतीश कुमार अचानक विपक्ष की भाषा बोलने लगे हैं।

जातीय जनगणना पर नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव का एक साथ आना राज्य में नए सियासी संकेत दे रहा है। नीतीश कुमार विपक्षी नेताओं के साथ मिलकर जाति आधारित जनगणना की मांग कर रहे हैं। पेगासस जासूसी मामले में भी नीतीश कुमार ने भाजपा को घेरते हुए कहा था कि पेगासस केस की निश्चित तौर पर जांच होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि ‘सांसद में भी पेगासस केस पर बहस होनी चाहिए जब इतने लोग संसद में मुद्दा उठा रहे हैं निश्चित ही जांच होनी चाहिए। सच्चाई सबके सामने आये।’

नीतीश कुमार का सियासी सफर

बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार एक ऐसा नाम है जो दशकों से भी अधिक समय से प्रासंगिक बना हुआ है। पिछले डेढ़ दशक से वह शख्स बिहार की राजनीति के सिरमौर बने हुए हैं। नीतीश कुमार अपने छात्र जीवन से ही जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, अनुग्रह नारायण सिंह, सत्येंद्र नारायण सिन्हा, कर्पूरी ठाकुर जैसे नेताओं से काफी प्रभावित रहे। इसी वजह से उनका झुकाव राजनीति की तरफ हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में संपूर्ण क्रांति आंदोलन की शुरुआत 1947 में हुई तो उसमें नीतीश कुमार बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया बाद में नीतीश कुमार  जनता पार्टी में शामिल हो गए। 1977 में उन्होंने विधानसभा का चुनाव हरनौत सीट से लड़ा था। वह यह चुनाव हार गए थे।


1980 के चुनाव में भी उन्हें हार मिली। 1985 में नीतीश कुमार ने समता पार्टी के टिकट पर दोबारा हरनौत से ही चुनाव लड़ा। इस बार वे सफल रहे। इस जीत से शुरू हुआ नीतीश कुमार का राजनीतिक सफर लगातार आगे बढ़ता गया। उन्होंने दोबारा पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1989 में नीतीश कुमार जनता दल के प्रदेश सचिव बने। इसी दौरान लोकसभा चुनाव जीतकर पहली बार संसद में पहुंचे और 1990 में पहली बार केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री बने थे। उस वक्त केंद्र में वीपी सिंह की सरकार थी।

साल 1991 में नीतीश कुमार दूसरी बार लोकसभा के लिए चुने गए। इस बार इन्हें इनकी पार्टी जनता दल की ओर से संसद में पार्टी का उप नेता बनाया गया था। साथ में ही वे अपनी पार्टी के महासविच भी चुने गए। सन् 1996 में नीतीश कुमार फिर से 11वीं लोकसभा के सदस्य चुने गए। साल 1998 में 12वीं लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए नीतीश कुमार को रेल मंत्री बनाया गया। हालांकि साल 1999 में हुए गैसल टेªन आपदा के कारण उन्हें अपना मंत्री पद छोड़ना पड़ा था। साल 1999 में भी लोकसभा के लिए फिर से निर्वाचित हुए थे। इस बार वे भूतल परिवहन मंत्री बने। बाद में उनका मंत्रालय बदल उन्हें कृषि मंत्री बनाया गया था।

साल 2000 में बिहार विधानसभा चुनाव बाद किसी भी दल का स्पष्ट बहुमत नहीं होने के चलते समता पार्टी और बीजेपी के गठबंधन को तत्कालीन राज्यपाल सुंदर सिंह भंडारी ने सरकार बनाने का न्यौता दिया। नीतीश कुमार के नेतृत्व में बनी गठबंधन सरकार लेकिन सदन में बहुमत साबित न कर पाने के चलते मात्र सात दिन बाद ही गिर गई। नीतीश कुमार 2005 में दोबारा सीएम बने। इस बार उनकी गठबंधन सरकार आठ बरस तक सत्ता में काबिज रही।


2013 में बीजेपी द्वारा नरेंद्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री कैंडिडेट के रूप में घोषित करते ही सांप्रदायिकता के सवाल पर नीतीश कुमार ने बीजेपी से 17 साल पुराना नाता तोड़ लिया। 2014  लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार को भारी हार का सामना करना पड़ा। नीतीश ने चुनाव नतीजों के दूसरे दिन मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बना डाला। हालांकि उनका  यह प्रयोग सफल नहीं रहा और मात्र 10 माह बाद ही मांझी को हटा वे दोबारा सीएम की कुर्सी पर काबिज हो गए।

2015 में भाजपा को टक्कर देना मुश्किल लग रहा था तो इसके लिए पिछले 18 सालों तक एक दूसरे के खिलाफ राजनीति करने वाले लालू- नीतीश ने सांप्रदायिक तत्वों को हराने के नाम पर महागठबंधन का ऐलान किया और विधानसभा में जीत दर्ज की। साल 2017 में नीतीश कुमार ने उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप के चलते राजद संग गठबंधन समाप्त कर वापस भाजपा से हाथ मिला डाला। एक बार फिर से बिहार में जद(यू) भाजपा सरकार बन गई। नीतीश कुमार के यूं गठबंधन तोड़ एनडीए में शामिल होने से यूपीए गठबंधन को भारी झटका लगा था। कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष राहुल गांधी ने इसे नीतीश का विश्वासघात करार दिया। लालू यादव ने तब नीतीश कुमार पर तंज कसते हुए उन्हें सत्ता का लोभी कह डाला था। 2020 में हुए राज्य विधानसभा चुनावों के नतीजे नीतीश कुमार की पार्टी के लिए बड़ा सदमा साबित हुए। पहली बार एनडीए गठबंधन में भाजपा जद(यू) को पिछाड़ बड़ी पार्टी बन उभरी। जद(यू) को मात्र 40 सीटें मिली। भाजपा के खाते में 68 सीटें आईं। हालांकि चुनाव पूर्व घोषणा का सम्मान करते हुए भाजपा ने मुख्यमंत्री की कुर्सी जद(यू) को ही दे नीतीश को सीएम बनाए रखा लेकिन गठबंधन में नीतीश का वर्चस्व समाप्त हो गया।


बिहार की राजनीति को समझने वाले जानते हैं कि नीतीश कुमार दबाव में काम नहीं करने वाले राजनेता हैं। गठबंधन में भाजपा का दबदबा होने के चलते नीतीश कुमार को सरकार चलाने में खासे दबाव का सामना करना पड़ रहा है। लंबे समय तक उनकी सरकार में भाजपा कोटे से उपमुख्यमंत्री रहे सुशील मोदी को भी अब पार्टी आलाकमान ने बिहार से हटा डाला है। ऐसे में नीतीश कुमार को भाजपा संग सरकार चलाने में कठिनाई होने के समाचार हैं। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो पेगासस जासूसी कांड और जाति आधारित जनगणना का मुद्दा उठा 2024 में विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व पाने की तरफ उठा नीतीश कुमार का पहला कदम है। भाजपा भीतर उनके बदलते बोल परेशानी का सबब बन चुके हैं तो विपक्ष अभी खुलकर कुछ भले ही नहीं कह रहा है, भीतरखाने जद(यू) नेताओं ने कांग्रेस समेत यूपीए गठबंधन के घटक दलों का मिजाज भांपने की कवायद शुरू कर दी है।

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