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भोपाल गैस त्रासदी: पीड़ितों के मुआवजे पर केंद्र को फटकार

साल 1984 में भोपाल में हुई गैस त्रासदी ने देश ही नहीं पूरे विश्व में हलचल मचा दी थी। इस घटना में हजारों लोग घायल हुए तो हजारों ने अपनी जान गवाई। हालांकि इस घटना को बीते कई दसक बीत गए हैं लेकिन यह मुद्दा आज तक शांत नहीं हुआ है।

पिछले 2 दिनों से सुप्रीम कोर्ट में इस मसले पर सुनवाई चल रही है। दरअसल सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार द्वारा एक याचिका दायर की गई थी। जिसमें भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को मुआवजे के लिए यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन की उत्तराधिकारी कंपनियों से 7 हजार 844 करोड़ रुपये की अतिरिक्त मांग की गई थी। जिस पर कोर्ट ने केंद्र को फटकार लगते हुए कहा है कि किसी को भी त्रासदी की भयावहता पर संदेह नहीं है। फिर भी जहां मुआवजे का भुगतान किया गया है, वहां कुछ सवालिया निशान हैं। जब इस बात का आकलन किया गया कि आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार था। बेशक, लोगों ने कष्ट झेला है, भावुक होना आसान है लेकिन हमें इससे बचना चाहिए । कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि मुआवजे के लिए 50 करोड़ का फंड आज तक जस का तस पड़ा है, इसका मतलब यह है कि पीड़ितों को मुआवजा दिया ही नहीं जा रहा है।तो इसके लिए क्या केंद्र सरकार जिम्मेदार है? जिस पर केंद्र सरकार की ओर से अटॉर्नी जनरल ने कहा कि वेलफेयर कमिश्नर सुप्रीम कोर्ट की योजना के अनुसार काम कर रहा है। कोर्ट ने जवाब पर असंतुष्टि जाहिर करते हुए कहा कि फिर पैसा क्यों नहीं बांटा गया? SC ने केंद्र से पूछा कि वह अतिरिक्त मुआवजा (8 हजार करोड़ रुपये) कैसे मांग सकता है, जब यूनियन कार्बाइड पहले ही 470 मिलियन डॉलर का भुगतान कर चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार अब तक यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन का इन्तजार क्यों कर रही है। पीड़ितों को मुआवजा अभी तक मिल जाना चाहिए था। सरकार को खुद समाज सेवा का हाथ बढ़ाना चाहिए था। केंद्र को फटकार लगते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार अब तक यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन का इन्तजार क्यों कर रही है पीड़ितों को मुआवजा तो कबका मिल जाना चाहिए था। सरकार को खुद समाज सेवा का हाथ बढ़ाना चाहिए था। इस मामले पर जब पहले ही पुनर्विचार किया जा चुका है तो इस मामले को बार- बार क्यों सामने लाया जा रहा है। संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ का कहना है कि “किसी और की जेब ढीली कराना और पैसा निकालना बहुत आसान होता है। अपनी खुद की जेब ढीली करें और पैसे दें तथा फिर विचार करें कि क्या आप उनकी जेब ढीली करवा सकते हैं या नहीं। ” कोर्ट ने यह भी कहा कि “कानून के दायरे में, हालांकि हमारे पास कुछ छूट हैं, लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि हम एक मूल मुकदमे के क्षेत्राधिकार के आधार पर एक उपचारात्मक याचिका का फैसला करेंगे। ”

दरअसल भोपाल गैस त्रासदी के दौरान तत्कालीन सरकार को जो कदम उठाए जाने चाहिए थे वो कदम उठाये गए थे। वर्ष 1984 में घटी इस दुर्घटना पर सुप्रीम कोर्ट 1989 में बंद कर दिया था की कोई मामला इतने दिन तक नहीं चलता और उस समय उन्होंने पीड़ितों को राहत पहुँचाने के लिए हर संभव प्रयास किया। लेकिन कोर्ट के इस फैसले पर पनर्विचार की मांग उठी और इसके लिए एक याचिका दायर की गई जो वर्ष 1991 में समाप्त हो गई। और इस मामले को पूरी तरह बंद कर दिया गया था। सरकार भी इस फैसले से संतुष्ट थी लेकिन साल 2010 में उपचारात्मक याचिका दायर करते हुए कहा कि वर्ष 1989 में लिया गया फैसला और 1991 में कोर्ट द्वारा दिया गया आदेश सही नहीं था। क्योंकि कंपनी को 2-3 दिसंबर, 1984 के बीच की रात 5 हजार से अधिक लोगों की जान जाने के लिए जवाबदेह ठहराया गया था। अदालत में सरकार ने बताया कि 5 हजार 295 लोगों की मौत हुई थी और पीड़ितों की संख्या 40 हजार से ज्यादा थी। इस तर्क पर कोर्ट कहना है कि इस बात पर कोई संदेह नहीं है की लोगों इस दुर्घटना में काफी की हानि हुई लेकिन कोर्ट न्याय-अधिकार क्षेत्र की मर्यादा से बंधा है और सरकार कंपनी के साथ हुए समझौते को 30 साल से अधिक समय बाद दोबारा नहीं खोल सकती। सरकार ने अभी यह फैसला सुरक्षित रखा है।

 

क्या है भोपाल गैस त्रासदी

 

साल 1984 की 3 दिसंबर की रात मध्य प्रदेश के भोपाल के लिए एक भयानक रात थी। जब भोपाल में स्थित यूनियन कार्बाइड नामक कंपनी के कारखाने से एक जहरीली गैस मिथाइलआइसोसाइनाइट (MIC) का रिसाव हुआ। इस गैस का उपयोग कीटनाशक बनाने के लिए किया जाता था। गैस का रिसाव धीरे धीरे शुरू हुआ जो रात भर में पूरे शहर की हवा में फ़ैल गई। जिससे लगभग 15 हजार से अधिक लोगों की जान गई तथा बहुत सारे लोग अनेक तरह की शारीरिक अपंगता से लेकर अंधेपन के भी शिकार हुए। सुनवाई के दौरान अदालत में कहा गया कि गैस रिसाव के कारण 5 हजार 295 लोगों की मौत हुई। वहीँ साल 2006 में सरकार द्वारा दाखिल एक शपथ पत्र में माना गया था कि रिसाव से करीब 558,125 सीधे तौर पर प्रभावित हुए और आंशिक तौर पर प्रभावित होने वालों की संख्या लगभग 38,478 थी। 3900 तो बुरी तरह प्रभावित हुए एवं पूरी तरह अपंगता के शिकार हो गये।

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