बैंक के राष्ट्रीयकरण के 50 साल पूरे हो गए हैं, मगर जश्न कहीं नहीं है। अधिकतर बैंक घाटे में हैं। अर्थशास्त्री राष्ट्रीकत बैंकों के भविष्य पर चर्चा कर रहे हैं। सरकार बैंकों को लाखों करोड़ रुपए की मदद कर मजबूत करने में लगी है। ताकि उन तक आम लोगों, किसानों और गरीबों की पहुंच बनी रहे।
देश के बैंकिंग इतिहास में 19 जुलाई का खास महत्व है। दरअसल, 19 जुलाई, 1969 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था। तब इन बैंकों पर अधिकतर बड़े औद्योगिक घरानों का कब्जा था। 1980 में बैंकों का दूसरे दौर का राष्ट्रीयकरण हुआ। उस साल सात और बैंकों राष्ट्रीयकरण किया गया। इस सच्चाई को सभी मानते हैं कि राष्ट्रीयकरण के बाद भारत के बैंकिंग क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई। विशेषज्ञ भी कहते हैं कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण का भारतीय अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर पड़ा। 1970 के दशक में राष्ट्रीय आय के प्रतिशत के तौर पर सकल घरेलू बचत लगभग दोगुनी हो गई। लेकिन बाद में इसमें काफी उतार-चढ़ाव आए।
अर्थव्यवस्था को गति देने के अलावा बेरोजगारी की समस्या से निपटना, समाज के कमजोर वर्गों तथा प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों के लोगों का बैंकिंग सेवाओं एवं सुविधाओं के माध्यम से उत्थान करके देश की आर्थिक उन्नति को एक नई दिशा प्रदान करना, इसका मूल उद्देश्य था। मगर ऐसा हो नहीं सका। बैंकों के सरकारीकरण के बाद इसमें राजनीति का भी ‘गृहप्रवेश’ हो गया। लंबे समय तक सत्ता में रही कांग्रेस सरकारों ने बैंकों के बोर्ड में अपने राजनीतिक लोगों की नियुक्ति कर इसका दुरुपयोग किया। जो लोग निगरानी के लिए बोर्ड में भेजे गए थे, बैंकों का इस्तेमाल अपने मालिकों को उपकृत और लाभ पहुंचाने के लिए करने लगे। नतीजा यह रहा कि बैंक अमीरों के होकर रह गए। सरकारीकरण का उद्देश्य धरातल पर पहुंचने से पहले ही दम तोड़ दिया।
बोर्ड में शामिल होने वाले यूनियनों के नेता भी बोर्ड के सदस्यों की साजिश में शामिल हो गए। जिस कारण राष्ट्रीयकृत बैंकों की आर्थिक हालत और खराब होती गई। अधिकतर सरकारी बैंक आज घाटे में हैं। एनपीए लगातार बढ़ता जा रहा है। उदारीकरण के बाद सरकारी बैंकों पर दबाव और बढ़ गया। निजी बैंक जहां बेहतर परिणाम दे रहे हैं, वहीं सरकारी बैंक की बैलेंस सीट लाल निशान से ऊपर नहीं हो पा रही है। 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के पहले तक बैंक उच्च एवं मध्यम वर्ग से आगे नीचे तक नहीं पहुंच पाए। मोदी सरकार ने कुछ हद तक बैंकों में सुधार और जनता तक पहुंचने का काम किया। जो बैंक 45 वर्षों में आमजन तक नहीं पहुंच पाए, उन्हें मोदी सरकार ने कुछ महीनों में गरीबों के द्वार बैंक को पहुंचा दिया। जनधन योजना के तहत सरकार ने लगभग 35 करोड़ लोगों के खाते खोले। इनमें अधिकतर गरीब एवं निम्न आय वर्ग के लोग थे। सरकारी बैंकों के ऋण वापस नहीं करने वाले लोगों पर नए और सख्त कानून बनाए गए। ऋण वसूली प्रक्रिया को तेज किया जा रहा है। कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अभी भी कई और सुधारों की जरूरत है।
देश में अभी सरकारी बैंकों के अलावा बहुत से विदेशी और निजी क्षेत्र के बैंक सक्रिय हैं। मगर लगभग 90 फीसदी लोग अब भी सरकारी क्षेत्र के बैंकों की ही सेवाएं लेते हैं। इस समय भारत में 27 बैंक राष्ट्रीयकृत हैं। निजी बैंकों की तुलना में इन राष्ट्रीयकृत बैंकों में आर्थिक फर्जीवाड़ा ज्यादा हो रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की रिपोर्ट के अनुसार बैंकों को फर्जीवाड़े के कारण 2017-18 के वित्तीय वर्ष में 41,168 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। यह नुकसान 2016-17 की तुलना में 72 प्रतिशत ज्यादा है। उस साल बैंकों के साथ फर्जीवाड़े की कुल 5,917 घटनाएं हुईं थी, जबकि 2016-17 में कुल 5,096 फर्जीवाड़े हुए थे। इस साल 23,934 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था। आरबीआई ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा है कि बैंकों के साथ होने वाले फर्जीवाड़े भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक गंभीर समस्या है। बैंकिंग प्रबंधन में धोखाधड़ी सबसे गंभीर चिंता का विषय बन गई है, जिसका 90 प्रतिशत हिस्सा बैंकों के क्रेडिट पोर्टफोलियो में स्थित है।
आरबीआई के मुताबिक अधिकतर फर्जीवाड़ा करेंट अकाउंट के जरिये किया गया। पूंजीपतियों ने सबसे ज्यादा बैंकों को नुकसान पहुंचाया। उन्होंने बैंकों का लाखों करोड़ रुपया गबन किया हुआ है। गबन के बाद कानून की सख्ती के कारण वे फरार हो गए हैं। नीरव मोदी, मेहुल चैकसी, विजय माल्या आदि इसके उदाहरण हैं। डिफाॅल्टरों को बड़े बेल आउट पैकेज भी दिए गए, लेकिन वे भी डूब गए। ऐसी स्थिति में सरकारी बैंकों का अस्तित्व खतरे में है। इसी का नतीजा है कि वर्तमान सरकार को कई राष्ट्रीयकृत
बैंकों के विलय का निर्णय लेना पड़ा। स्टेट बैंक आॅफ इंडिया में उसके सभी एसोसिएट बैंक का विलय कर दिया गया। बैंक आॅफ बड़ौदा, देना बैंक आदि को भी विलय किया गया है। कुछ और बैंकों को विलय करने की तैयारी चल रही है।
‘बैंकों के विलय पर सरकार का जोर’
नेशनल आर्गेनाइजेशन आ बैंक वर्कर्स के पूर्व महासचिव अश्विनी राणा से बातचीत
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 50 साल हो गए हैं। आप इस पर क्या कहेंगे?
वर्ष 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण नहीं सरकारीकरण हुआ था। उस समय सरकारों ने अपने हितों के लिए बैंकों का यूज किया। बैंक के बोर्ड में राजनीतिक लोगों को बिठा दिया गया। बोर्ड में शामिल ये नेता ने बैंक कर्मचारियों के नहीं, बल्कि सरकार के हित में काम करते रहे। आज बैंकों की दुर्दशा का यही कारण है। मौजूदा सरकार भी बैंकों के विलय पर जोर दे रही है। भारतीय स्टेट बैंकों में 7 एसोसिएट बैंकों का विलय हो चुका है। इसके अलावा बैंक आॅफ बड़ौदा में विजया बैंक और देना बैंक का विलय किया जा चुका है। अब लगता है कि 50 साल बाद बैंकों के साथ फिर से किया जा रहा यह प्रयोग कहीं निजीकरण की ओर तो नहीं जा रहा है?
बैंक में बढ़ रहे एनपीए के लिए आप किसे जिम्मेदार मानते हैं?
इसके लिए सरकार के लोग और बैंक के बोर्डों में बैठे उनके सदस्य हैं। राष्ट्रीयकरण के 50 साल होने के बाद भी बैंकों को एनपीए की समस्या से निजात नहीं मिल पा रही है। राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों ने अपने लक्ष्य और व्यक्तिगत लाभ के लिए आंख बंद करके पैसा बांटा था। इससे बैंकों का काफी पैसा फंस गया था। सरकारों ने समय-समय पर आम जनता के पैसे से पैकेज देकर इसकी भरपाई की। 2019 में भी ऐसा ही हाल है और सरकारी बैंकों का करीब 10 फीसदी पैसा एनपीए में फंसा है।
राष्ट्रीयकरण में इनकी थी अहम भूमिका
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पहले देश के बड़े औद्योगिक घराने बैंक चलाया करते थे। उसमें टाटा, बिड़ला, बड़ौदा के महाराज आदि शामिल थे। बताया जाता है कि राष्ट्रीयकरण के वक्त 14 सरकारी बैंकों का कुल प्राॅफिट 5.7 करोड़ रुपया था। आज यही बैंक हजारों करोड़ के घाटे में हैं। 14 निजी बैंकों को राष्ट्रीयकøत करने के अपने फैसले को न्यायोचित ठहराते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था कि बैंकिंग को ग्रामीण क्षेत्रों तक ले जाना बेहद जरूरी है, इसलिए यह कदम उठाना पड़ रहा है। उन पर यह आरोप भी लगा कि उन्होंने अपने राजनीतिक लाभ के लिए यह कदम उठाया था। प्रधानमंत्री के इस फैसले के क्रियान्वयन में आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर लक्ष्मीकांत झा ने बड़ी भूमिका निभाई थी। मगर बताया जाता है कि इस फैसले की शायद उन्हें पहले से जानकारी नहीं दी गई। उन्हें बाद में इस मुहिम से जोड़ा गया। लक्ष्मीकांत झा की तरह इंद्रप्रसाद गोवर्धनभाई पटेल को भी प्रधानमंत्री के फैसले की पहले से जानकारी नहीं थी। पटेल तब आर्थिक मामलों के सचिव थे। उन्हें राष्ट्रीयकरण की घोषणा से महज 24 घंटे पहले इसका मसौदा तैयार करने के लिए कहा गया था।
इंदिरा गांधी के तत्कालीन प्रधान सचिव परमेश्वर नारायण हक्सर निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण के फैसले के क्रियान्वयन का जिम्मा संभाल रहे थे। आरबीआई के तत्कालीन डेप्युटी गवर्नर ए. बख्शी उन लोगों में से एक थे, जिन्हें प्रधानमंत्री के फैसले की पहले से जानकारी थी। डी.एन घोष ने अपनी आत्मकथा में उन्होंने इस बात का वर्णन किया है कि वे केंद्रीय वित्त मंत्रालय में उप सचिव रहते हुए कितने सक्रिय थे। इस फैसले के क्रियान्वयन में अपनी अहम भूमिका निभाई थी। तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरि ने अध्यादेश पर हस्ताक्षर किया था। इसके एक दिन बाद उन्हें चुनाव लड़ने के लिए अपने पद से इस्तीफा देना था। निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण करने की प्रधानमंत्री की योजना से मोरारजी देसाई बेहद नाराज थे। नाराजगी प्रकट करते हुए घोषणा के एक सप्ताह पहले उन्होंने वित्त मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था।