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आमिर खान का ‘दंगल’ वाला अखाड़ा और कुंभ के अखाड़े में कोई मेल नहीं है। एक खेल और मनोरंजन के लिए है तो दूसरा धर्म, संस्कृति की रक्षा करने वाला। यहां जिक्र धर्म और संस्कृति की रक्षा करने अखाड़े की होगी। मकर संक्राति के दिन अखाड़ों की शाही स्नान के साथ ही प्रयागराज में अर्द्धकुंभ का अगाज हो गया। दो महीनों से ज्यादा समय तक चलने वाले इस आयोजन में देश-दुनिया के करोड़ों श्रद्धालु गंगा में डुबकी लगाएंगें। श्रद्धालु पाप हरने वाली उस गंगा में डुबकी लगाएंगे, जो खुद अपनी अस्तित्व (प्रदूषण से) बचाने के लिए छटपटा रही है। सरकार इस अर्द्धकुंभ मेले को कुंभ के रूप में प्रचारित कर राजनीति साधने का प्रयास कर रही है। फिर भी कुंभ मेले में सनातन धर्म के करोड़ों लोगों की पूरी आस्था है।

कुंभ मेला बिना अखाड़ों के साधु-संतों की कल्पना नहीं की जा सकती है। कुंभ अखाड़ों का ही है। कुंभ के दौरान आध्यात्मिक और धार्मिक विचार-विमर्श होता है। कुंभ-अर्द्धकुंभ में ही अखाड़े अपनी-अपनी परंपराओं में शिष्यों को दीक्षित और उन्हें उपाधि देते हैं। अखाड़ों के बारे में कहा जाता है कि ये सिर्फ कुंभ और अर्द्धकंभ के दौरान ही दिखते हैं। पर ऐसा है नहीं। अखाड़ों की गतिविधियां सालों भर चलती है। साधु-संत रोजाना अपने-अपने कामों को करते हैं। जिसमें धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कार्य होते हैं। लेकिन बिना प्रचार-प्रसार के। यही वजह है कि अखाड़ों के बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी है। अखाड़ों का इतिहास भी स्पष्ट नहीं है।

देश-दुनिया के श्रद्धालु कुंभ में पुण्य कमाने की इच्छा लिए पहुंचते हैं। गंगा में डुबकी साधु-संत भी लगाते हैं पर वह पुण्य कमाने की इच्छा से नहीं आते हैं। साधुओं का दावा है कि वे कुंभ पुण्य कमाने नहीं पहुंचते, बल्कि गंगा को निर्मल करने के लिए पहुंचते हैं। उनके मुताबिक गंगा धरती पर आने को तैयार नहीं थीं। जब उन्होंने धरती को पवित्र किया, तब गंगा आई। अखाड़ों के संतों के दावों के बाद नागा संन्यासी, अखाड़ा और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। इसलिए इनके इतिहास को खंगालना जरूरी है।

आदिकाल एवं मध्ययुगीन इतिहास श्रंखलाबद्ध नहीं होने के कारण ही नागा संन्यासियों एवं अखाड़ों का विस्तार से विवरण उपलब्ध नहीं है। फिर भी कई इतिहास एवं पौराणिक किताबों में कुछ जगहों पर इनके विवरण मिलते हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि कालांतर में विदेशी आक्रमणकारियों, मुसलमानों ने हिंदू धर्म को बलपूर्वक खत्म करने के लिए कत्लेआम शुरू किया था। तब आदि शंकराचार्य के बनाये मठों, आश्रमों एवं मढ़ियों के साधु-संतों ने शस्त्र विद्या की आवश्यकता महसूस की। इसी को ध्यान में रखकर हिंदू धर्म को आक्रमणकारियों से बचाने के लिए दशनाम संन्यासियों का संगठन बनाया गया। इसमें युवाओं को शस्त्र विद्या में निपुण किया जाने लगा। इन्हीं संगठनों को बाद में अखाड़ा कहा जाने लगा। जबकि कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि आदि शंकराचार्य ने सदियों पहले बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रसार को रोकने के लिए अखाड़ों की स्थापना की थी। जो नहीं माने, उनके लिए शस्त्र उठाया गया। लेकिन आदि शंकराचार्य ने अखाड़ों की शुरुआत की, इसका कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलते हैं।

उस वक्त हजारों विरक्त संन्यासी एवं हिन्दू धर्म की भावनाओं से ओत-प्रोत युवा इससे जुड़ने के लिए आगे आने लगे। उन युवाओं को संन्यासी दीक्षा देकर शस्त्रों (भाला, त्रिशुल, तलवार आदि) का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। ये संन्यासी अपने धर्म की रक्षा के लिए हमेशा बलिदान देने को तैयार रहते थे। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए इन्होंने वस्त्रों का भी परित्याग करने का निश्चय कर लिया। नग्न अवस्था में रहने के कारण ही इन्हें परमहंसी संन्यासी के बदले नगा संन्यासी कहा जाने लगा।

प्रसिद्ध इतिहासकार यदुनाथ सरकार लिखते हैं कि ईसा के करीब 3-4 वर्ष पूर्व सिकंदर के आक्रमण के समय से योद्धा नागा संन्यासियों के संघों का पता चलाता है। नागा संन्यासियों को यूनानी में ‘जिम्नोसोफिस्ट’ कहते हैं। जिनका शाब्दिक अर्थ होता हैं- ‘नंगे दार्शनिक’। यूनानी इतिहासकार आरियन ने अपनी पुस्तकों ‘अनाबेसरीय’ तथा ‘इंडिका’ में नगा संन्यासियों के बारे में जिक्र किया है। सिकंदर के रावी नदी के तटवर्ती मल्लोई नगर पर आक्रमण का जवाब दिगंबर नागा संन्यासियों ने दिया था। उस समय इन्हीं नागा संन्यासियों के नेतृत्व में जनता ने सिकन्दर के खिलाफ युद्ध किया था। बाद में सिकंदर ने डायोजिनिज के शिष्य ओनेसी क्रिट्स के साथ कल्याण तथा दाण्डिन नामक नागा संन्यासियों से मुलाकात की थी।

ओंकार आश्रम चंदोद (गुजरात) के ब्रह्मलीन स्वामी श्री ब्रह्मनंदजी दोणाचार्य ने लिखा है कि भागवान श्री कृष्ण के काल में पांच हजार वर्ष पूर्व गुजरात के भृगुक्षेत्र या कानम प्रदेश के कारवण के समीप अवाखल में महर्षि लाकुलीश हुए थे। यहां आज भी महर्षि लाकुलीश के बनाये बड़े-बड़े शिव मंदिर हैं। बताया जाता है कि शैव नागा संन्यासियों का वीर शैवधर्म इन्हीं लाकुलीश का चलाया हुआ है। इन्हीं के 18 शिष्यों ने द्वादश ज्योतिर्लिंगों एवं यूरोप, एशिया, ईरान, अरब और अमेरिका आदि देशों में शिवलिगों की स्थापना करवाई थी। इसी संप्रदाय का एक प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ जीर्णशीर्ण अवस्था में कारवण के एक ब्राह्मण के घर में मिला था। जिसे बड़ौदा के महाराज श्री सियाजी रवि गायकवाड़ ने अपने सरकारी छापेखाने में छपवाया। इससे मालूम पड़ता है कि प्राचीन नागा शैव संन्यासी सपत्निक एवं निपत्निक दोनों होते थे। आज भी अखाड़ों के नागा संन्यासी अपने-अपने इष्टदेव के प्राचीन भालों एवं ध्वजों, जनेऊ, चुड़ी, कंगन आदि पूजा की सामग्री इस्तेमाल करते हैं।

नागा संन्यासियों की संख्या बढ़ने के कारण अलग-अलग समूह बनाए गए। समूहों को उस समय ‘बेड़ा’ या ‘बेड़े’ कहा जाता था। वर्तमान में ‘बेड़ा’ को ही ‘दावा’ कहा जाता है। सभी सदस्यों के समूह को ‘अखंड’ की संज्ञा दी गई। इस प्रकार से सर्वप्रथम शस्त्रों से सजे-धजे नागा संन्यासियों का जो समूह एकत्रित हुआ उसका सामूहिक नाम ‘अखंड आवाहन’ या ‘आवाहन अखंड’ रखा गया। बाद में ‘अखंड’ शब्द आज शस्त्रों के संचालक एवं मल्लविद्या की शिक्षा स्थली होने के कारण ‘अखाड़ा’ बन गया। इस प्रकार सर्वप्रथम नागा सन्यासियों का एक दशनामी अखाड़ा आवाहन स्थापित हुआ। आगे भी नागाओं की संख्या निरंतर बढ़ते रहने के कारण एवं नागा दल समूह अलग-अलग क्षेत्रों में नियुक्त होने के कारण अन्य कई अखाड़ों की स्थापना हुई। हालांकि आज सभी अखाड़े वाले अपने को बड़ा एवं पुराना मानते हैं। मगर इसका कोई प्रमाणिक, ऐतिहासिक या धर्मिक एवं प्रशासनिक दस्तावेज नहीं है।

वर्तमान में दशनाम संन्यासी के अंतर्गत कुल 6 अखाड़े हैं। जो इस प्रकार हैं- आवाहन अखाड़ा, अटल अखाड़ा, महानिर्वाणी अखाड़ा, आनंद अखाड़ा, निरंजनी अखाड़ा और जूना अखाड़ा। एक अन्य अखाड़ा चारों मठों के ब्रह्मचारियों का स्थापित हुआ, जिसके अग्नि अखाड़ा नाम दिया गया। इसके अलावा छह वैष्णव अखाड़े भी हैं। बड़ा उदासीन अखाड़ा, छोटा उदासीन अखाड़ा, रामानंदी अखाड़ा, अग्नि अखाड़ा, निर्वाणी अखाड़ा तथा निर्मल अखाड़ा।


इन सभी अखाड़ों के अपने-अपने इष्टदेव होते हैं। अपना संविधान तथा शासन-अनुशासन होते हैं। प्रायः कुंभ एवं अर्द्धकुंभ के दौरान ही इनकी गतिविधियां दिखती हैं। बाकी समय इन अखाड़ों के सन्यासी देश के विभिन्न हिस्सों में स्थित अपने आश्रमों में रहते हैं। आध्ुनिकता की छाप अब इन अखाड़े के संन्यासियों पर भी साफ देखी जा सकती है। ब्रांडेड पोशाक आदि के बिना इनका क्रिया कलाप संपन्न नहीं होता है। अपने को हमेशा बड़ा सिद्ध करने में जुटे इन अखाड़ों के संन्यासी विवादों से भी बचे हुए नहीं हैं। कुछ संन्यासियों पर कई आरोप भी हैं। आज जिन अखाड़ों के पास जितना अधिक धन बल है, वह उतना ही बड़ा है। अपने को बड़ा साबित करने की होड़ में अधिकांश अखाड़े भ्रष्टाचार के दलदल में धसते जा रहे हैं। यदि इन अखाड़ों को हिंदू धर्मावलंबियों में संयमित, सुयोजित, सुव्यवस्थित एवं त्यागी बनना होगा।

‘आज भी महत्वपूर्ण है अखाड़ा’

आवाह्न अखाड़े के श्री महंत प्रेम पुरी (नेपाली बाबा) से बातचीत के मुख्य अंश

आज 21 वीं सदी में अखाड़े का महत्व क्या है?

सनातन धर्म में अखाड़े का अपना एक महत्व है। यह सही है कि पुराने समय में सनातन धर्म पर आए संकट को दूर करने के लिए अखाड़े को स्थापित किया गया था। यही वजह है कि हम संन्यासियों ने कई युद्ध लड़े। कई युद्ध में नागा संन्यासियों ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए राजा की मदद की। जिसमें कई युद्ध जीते तो कई हारे। राजतंत्र खत्म होने के बाद अखाड़ों के काम में भी परिवर्तन आया। आज अखाड़ा धर्म के प्रचार-प्रसार के अलावा सामाजिक और शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहा है।

लेकिन अब तो अखाड़े के नागा संन्यासी सिर्फ कुंभ के दौरान ही दिखते हैं, ऐसा क्यों है?

नहीं, ऐसा नहीं है। दरअसल, नागा संन्यासी बिना फ्रंट में आए, पर्दे के पीछे से समाज के काम में लगे रहते हैं। कई अखाड़ों का स्कूल, कॉलेज, हॉस्पिटल, मेडिकल कॉलेज चलते हैं। जिनमें गरीबों के बच्चों को मुफ्त या बहुत कम पैसे में शिक्षा दी जाती है। लोगों को जागरूक करने से लेकर धार्मिक शिक्षा भी नागा संन्यासी घूम-घूमकर देश भर में देते हैं।

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