बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अब विपक्षी दलों को एक मंच में लाने की जिम्मेदारी संभाल ली है। भाजपा के खिलाफ सभी विपक्षी पार्टियां चुनाव तो लड़ना चाहती हैं, लेकिन इन सबकी अपनी-अपनी महत्वाकांक्षा है। जब बात विपक्ष के नेतृत्व की आती है तो तमाम दलों में अनबन की झलक दिख ही जाती है। दरअसल, हर पार्टी की अपनी सियासी ख्वाहिशे हैं। जेडीयू नीतीश कुमार को पीएम उम्मीदवार बताती है। वहीं टीएमसी चाहती है कि ममता बनर्जी विपक्ष की कमान संभाले और दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल की विपक्ष के नेतृत्व की चाहत किसी से छिपी नहीं है। शरद पवार यूं तो विपक्षी एकता के पैरोकार हैं लेकिन अडानी मुद्दे पर उनके सुर अलग ही कहानी कह रहे हैं। मायावती, चंद्रबाबू नायडू और अखिलेश यादव कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी एकता के पक्षधर नहीं हैं। ऐसे में नीतीश कुमार के प्रयास कितने सफल होंगे, यह देखा जाना बाकी है
आम चुनाव होने में अब एक साल से भी कम समय है। उससे पहले कई महत्वपूर्ण राज्यों का विधानसभा चुनाव होना है, लेकिन विपक्षी दलों का फोकस मिशन 2024 पर है। कहने को तो प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा से मुकाबला विपक्षी एकजुटता से ही किया जा सकता है। जैसा प्रयास 2019 के लोकसभा चुनाव में भी विपक्षी दलों की ओर से किया गया था। लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली थी। अब एक बार फिर विपक्ष भाजपा को देश की सत्ता से बेदखल करने की जुगत में जुटा है। इस दौरान एक ओर जहां विपक्षी पार्टियां अडानी मामले की जेपीसी मांग पर अडिग हैं, वहीं दूसरी तरफ राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार के बयान के बाद सियासी गर्माहट भी शुरू हो गई है। दरअसल पवार ने हाल ही में एक इंटरव्यू में अडानी मामले में जेपीसी की मांग से किनारा करते हुए कहा था कि सुप्रीम कोर्ट की जांच से ही सही नतीजे सामने आएंगे। ऐसा तब जबकि संपन्न संसद के बजट सत्र के दौरान जेपीसी की मांग करने वाले 19 विपक्षी दलों में पवार की पार्टी भी शामिल थी। ऐसे में पहले सावरकर और फिर जेपीसी के मुद्दे पर पवार के अलग सुरों से विपक्षी एकता पर सवाल उठने लगे हैं। कहा जा रहा है कि विपक्षी एकता ठीक वैसी ही है जैसे ढाक का पेड़ कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए उसके पत्ते तीन ही होते हैं।
दरअसल पवार ने अडानी मामले को लेकर कहा कि ‘उनकी पार्टी ने भी संसद में जेपीसी की मांग का समर्थन किया है, लेकिन खुद उन्हें लगता है कि जेपीसी में सत्ताधारी दल का वर्चस्व होगा और रिपोर्ट सरकार के पक्ष में ही आएगी। इसलिए सुप्रीम कोर्ट की समिति से ही कुछ उम्मीद की जा सकती है। जेपीसी जांच की मांग पर उनके बयान को विपक्षी एकता से नहीं जोड़ा जाना चाहिए।’
इधर विपक्षी एकजुटता का बचाव करते हुए कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने पवार के बयान को निजी राय बताते हुए कहा कि एनसीपी के अपने विचार हो सकते हैं, लेकिन 19 समान विचारधारा वाले विपक्षी दल इस बात को मानते हैं कि प्रधानमंत्री से जुड़ा अडानी ग्रुप का मुद्दा वास्तविक और बहुत गंभीर है। एनसीपी सहित समान विचारधारा वाले सभी विपक्षी दल एकजुट हैं और संविधान एवं हमारे लोकतंत्र को भाजपा के हमलों से बचाने के लिए संगठित हैं। ये सभी भाजपा के विभाजनकारी और विनाशकारी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक एजेंडे को हराने में एक साथ होंगे। जेपीसी मुद्दे पर गर्मा रही राजनीति के बीच शिवसेना (उद्धव) के नेता संजय राउत ने पवार का बचाव किया है। उन्होंने कहा कि जेपीसी की मांग का पवार ने विरोध नहीं किया है, बल्कि अपने अनुभव के आधार पर एक विकल्प सुझाया है। गौरतलब है कि बिहार के सीएम नीतीश कुमार काफी समय से विपक्षी एकता को मजबूत करने की मुहीम में जुटे हैं। इस मुहीम में कुछ दल बिना शर्तों के विपक्षी एकता को समर्थन दे रहे हैं, लेकिन कुछ दल इसमें रोड़ा बन रहे हैं।
नीतीश कुमार लगातार विपक्षी दलों के प्रमुख नेताओं से मिलकर उन्हें भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए तैयार कर रहे हैं। पिछले दिनों नीतीश जब दिल्ली दौरे पर थे तो शुरुआत में उन्होंने लालू प्रसाद यादव से मुलाकात की। दिल्ली वे कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के बुलाने पर गए थे। उन्होंने कांग्रेस नेता राहुल गांधी से भी मुलाकात की थी। इस मुलाकात में बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव सहित कांग्रेस, जेडीएस और आरजेडी के कई नेता मौजूद थे। सभी नेता बाहर आए तो नीतीश कुमार के चेहरे पर एक विजयी मुस्कान दिख रही थी। उन्होंने यह साफ किया कि विपक्षी एकता में कांग्रेस की अहम भूमिका है। कांग्रेस के साथ मिलकर सभी विपक्षी दलों को एकजुट होना होगा। तभी भाजपा से 2024 लोकसभा चुनाव में मुकाबला कर सकते हैं। दिल्ली दौरे के दौरान नीतीश कुमार ने सीपीआई नेता सीताराम येचुरी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल संग भी मुलाकात की। नीतीश ने उन्हें अपने पक्ष में करने की कवायद शुरू कर दी है। लेकिन अहम सवाल यह उठता है कि सिर्फ दिल्ली में जो प्रमुख पार्टियां हैं, उन्हें साथ ले आने से क्या 2024 लोकसभा चुनाव में भाजपा का मुकाबला विपक्षी एकता कर सकता है? हालांकि नीतीश कुमार बार-बार दूसरे राज्यों के विपक्षी दलों को भी साथ आने का आग्रह कर रहे हैं। लेकिन हर दल किसी न किसी बिंदु पर बिदक जा रहे हैं। ऐसे में इस विपक्षी एकता में कई ऐसे रोड़े हैं जो नीतीश कुमार के लिए बाधक बन सकते हैं।
बिना शर्त समर्थन देने वाले दल
नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू, लालू यादव की पार्टी आरजेडी के अलावा शिवसेना (उद्धव गुट) कांग्रेस के साथ हैं। तमिलनाडु की डीएमके और झारखंड में सत्ताधारी (जेएमएम) झारखंड मुक्ति मोर्चा भी कांग्रेस की सहयोगी हैं। जम्मू कश्मीर के फारूख अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस, महबूबा मुफ्ती की पीडीपी और कमल हसन की मक्कल निधि मय्यम (एमएनएम) भी विपक्षी एकता के पक्ष में हैं। इनके अलावा दलित पैंथर्स, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (आरएसपी), फॉरवर्ड ब्लॉक और सीपीआई भी विपक्षी एकता के साथ बिना शर्तों के शामिल हो सकते हैं। ये सभी दल भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ने में दिलचस्पी दिखा रहे हैं। भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए वह अपने आप को अपने क्षेत्र में मजबूत भी कर रहे हैं। इसलिए विपक्षी एकता के फॉर्मूले को यह सहर्ष स्वीकार कर रहे हैं। अपने-अपने क्षेत्र में छोटे स्तर पर ही सही, लेकिन यह पार्टियां काफी मजबूत हैं। कहीं न कहीं ये सभी भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़कर हारी हुई पार्टियां हैं या फिर लगातार उसके साथ संघर्ष कर रही हैं। ऐसे में यह सारी पार्टियां विपक्षी एकता को मजबूत करने में बिना शर्त नीतीश के साथ आ सकती हैं।
विपक्षी एकता में बाधक
2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा की तैयारियां पहले ही शुरू हो चुकी है, लेकिन भावी रणनीति विपक्ष की स्थिति पर निर्भर करेगी। भाजपा रणनीतिकारों का मानना है कि इसमें सबसे अहम भूमिका क्षेत्रीय दलों की होगी, जिनके साथ भाजपा भी संपर्क बनाए हुए है। विपक्षी एकता को एक बड़ा खतरा भाजपा का छोटे-छोटे दलों और उनके नेताओं को अपने पाले में किया जाना है। जैसे कि बिहार में भाजपा ने चिराग पासवान को साथ मिलाकर रखा है। वहीं उपेंद्र कुशवाहा को पिछले दिनों अपने पाले में लाने में कामयाबी हासिल की है। मुकेश सहनी पर भी भाजपा की विशेष निगाह बनी हुई है। वहीं बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की हाल ही में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात के बाद चर्चा है कि वे भी एनडीए में शामिल होंगे। भाजपा ने नॉर्थ ईस्ट के राज्यों के स्थानीय दलों और नेताओं को भी अपने पाले में हाल के दिनों में किया है। ये छोटे-छोटे दल और नेता भाजपा के वोट प्रतिशत को बढ़ा सकते हैं। ऐसे में छोटे दल विपक्षी एकता को बड़ा झटका दे सकते हैं।
नीतीश से उठा विपक्षी दलों का भरोसा
नीतीश के कुछ निर्णय विपक्षी एकता में सबसे बड़ी बाधा बन सकते हैं। नीतीश 2013 से अब तक दो बार भाजपा और दो बार आरजेडी से समझौता कर चुके हैं। ऐसे में नीतीश कुमार की यह प्रवृत्ति है कि वह सत्ता के लिए अपना पाला बदल सकते हैं। अब प्रवृत्ति उनकी राह में बाधा बनती नजर आ रही है।
सबको साथ लाना टेढ़ी खीर
विपक्षी एकता को मजबूत करने में कई क्षेत्रीय दल प्रमुख हैं। इनमें द्रमुक, राकांपा, बीजद, बीआरएस, वायएसआरसीपी, सपा, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी अहम हैं। बिहार की राजनीति के जानकार मानते हैं कि कांग्रेस पार्टी ने नीतीश को विपक्षी एकता को एकजुट करने के लिए अधिकृत किया है, लेकिन विपक्षी दलों को एकजुट करना नीतीश के लिए कठिन काम होगा। क्योंकि सबकी अपनी-अपनी लालसा है? ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने की, सबके अपने-अपने मतभेद हैं। इन सब को एक साथ लेकर आना बहुत टेढ़ी खीर दिखती है।
सीटों के बंटवारे पर मतभेद
आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उड़ीसा, तमिलनाडु, बंगाल, दिल्ली, पंजाब इन सब जगहों पर कांग्रेस की सीधी लड़ाई भाजपा से है। इन राज्यों में लोकसभा की 200 से ज्यादा सीटें हैं। इन सीटों पर कांग्रेस को झुकना पड़ेगा। कांग्रेस कहां तक झुकती है यह काफी हद तक कांग्रेस पर निर्भर करता है। हालांकि इन क्षेत्रों में क्षेत्रीय दलों को यदि कांग्रेस अपने पक्ष में लाती है तो कांग्रेस को झुकना पड़ेगा। जो अब तक कांग्रेस ने नहीं किया है। इस मामले में नीतीश के लिए कठिन चुनौती है। इन राज्यों में होगी मुश्किल दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार है। पंजाब में कांग्रेस की सीधी लड़ाई भाजपा से होती है। अब वहां केजरीवाल भी आ गए हैं तो केजरीवाल को कितनी सीटें दी जाए और कांग्रेस को कितनी? इसी प्रकार तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, तमिलनाडु, बंगाल भी हैं। बंगाल की सीएम ममता बनर्जी को शामिल करना बड़ा कठिन काम है। वहीं यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने भी अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं। उन्होंने न तो पक्ष में जाने की सहमति दी है और ना ही विपक्ष में रहने की सहमति दी है।
राजनीतिक पंडित कहते हैं कि मायावती दबाव में हैं। उन पर कई मामलों में मुकदमा चल रहा है। कहीं उन्हें लालू प्रसाद यादव की तरह जेल न भेज दिया जाए! इसलिए मायावती पूरी तरह से साइलेंट मोड पर हैं। आंध्र प्रदेश के पूर्व सीएम चंद्रबाबू नायडू भी अपना पत्ता नहीं खोल रहे हैं। वे बीजेपी के प्रति हमलावर हैं। आंध्र प्रदेश के सीएम जगनमोहन रेड्डी भी विपक्ष के साथ नहीं है। वे खुलकर तो कुछ नहीं बोले रहे हैं,मगर बीजेपी और पीएम मोदी के लिए सॉफ्ट दिखते हैं। यूपी के पूर्व सीएम अखिलेश यादव की भी राह अलग है। वे भी नीतीश कुमार के नाम पर सहमत नहीं दिख रहे हैं। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि विपक्षी एकता के ढाक के तीन पात जैसी स्थिति नीतीश कैसे एक कर पाएंगे।