इस समय दुनिया एक ऐसी गुमनाम त्रासदी का सामना कर रही है, जिस पर बहुत कम लोगों का ध्यान गया है। यह त्रासदी कोई आपदा नहीं बल्कि भाषाओं की गुमनाम मौत से जुड़ा है। एक अनुमान के अनुसार इस समय दुनिया की 6 हजार 700 बोली जाने वाली भाषाओं में से 40 प्रतिशत भाषाएं लुप्त होने के कगार पर हैं। जबकि इन भाषाओं में उस समाज की संस्कृति और उसका हज़ारों वर्षों का ज्ञान संरक्षित है। बदलते समय के साथ दुनिया में किसी न किसी एक भाषा की मृत्यु हो रही है। भाषा के खत्म होने के साथ ही सदियों से फल फूल रही संपूर्ण संस्कृति और उस ज्ञान का भी लोप रहा है जिसकी भरपाई करना बेहद असंभव है।
भाषाओं के लुप्त हो जाने का खतरा
आदिवासी समुदाय, विश्व आबादी के छह फीसदी से भी कम है, मगर उनमें विश्व की छह हज़ार 700 से अधिक भाषाओं में से चार हज़ार बोली जाती हैं। मगर, विशेषज्ञों का मानना है कि इस सदी के अन्त तक इनमें से लगभग आधी भाषाओं के लुप्त हो जाने का खतरा बना हुआ है। हम सभी जानते हैं कि भाषाएं केवल संवाद के लिए ही नहीं बल्कि हमारी संस्कृति के विकास के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। विकसित समाज तो अपनी भाषा को बचाए हैं, लेकिन आदिवासी और आर्थिक रूप से पिछड़े समाज की भाषा-बोली लुप्त होती जा रही हैं। वैश्विक स्तर पर बड़ी भाषाओं ने छोटी भाषाओं के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है। समूचे विश्व में छोटी जातियां, धर्म, नस्ल और भाषा गंभीर चुनौतियों का सामना कर रही हैं। आदिवासी भाषाओं का लुप्त होना एक श्रति जैसा है। एक कहावत है, “इलाज से सावधानी बेहतर।” कुछ ऐसा ही संयुक्त राष्ट्र संघ ने लुप्त होती इन आदिवासी भाषाओं के लिए किया है। दरअसल आदिवासी और छोटी भाषाओं के अस्तित्व पर मंडराते संकट को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2023 से 2032 को आदिवासी भाषाओं के अंतर्राष्ट्रीय दशक के रूप में मनाए जाने की घोषणा की है। हाल ही में हुई बैठक में यूनाइटेड नेशंस ने आदिवासी भाषाओं के अंतर्राष्ट्रीय दशक’ की शुरुआत की है, जिसके माध्यम से इन भाषाओं को लुप्त होने से बचाने के प्रयासों को बढ़ावा दिया जाएगा।
जैवविविधता के लगभग 80 फीसदी के रखवाले आदिवासी
लम्बे समय से संयुक्त राष्ट्र आदिवासी समुदायों के अधिकारों, उनके पारंपरिक ज्ञान व भाषाओं के संरक्षण के लिये प्रयासरत रहा है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि ये अनूठी संस्कृतियाँ व प्रथाएं विरासत में मिली हैं और जिनका पर्यावरण से गहरा नाता है। यूएन महासभा के 77 वें सत्र के लिये अध्यक्ष कसाबा कोरोसी ने कहा कि आदिवासियों की भाषाओं को सहेज कर रखना ना केवल इन समुदायों के लिए अहम है, बल्कि सारी मानवता के लिये भी जरूरी है। “लुप्त हो जाने वाली हर एक आदिवासी भाषा के साथ ही उससे जुड़ा विचार, संस्कृति, परम्परा और ज्ञान भी खो जाता है। ये इसलिए मायने रखता है चूँकि हमें पर्यावरण के साथ अपने संबंध में आमूलचूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है। “महासभा प्रमुख हाल ही में मांट्रियाल में यूएन जैवविविधता सम्मेलन से लौटे हैं। उसके बाद ही उन्होंने भरोसा जताया कि यदि प्रकृति के संरक्षण प्रयासों को सफल बनाना है, तो हमें आदिवासी आबादी को सुनना होगा और हमें ऐसा उन्हीं की भाषाओं में करना होगा। कसाबा कोरोसी ने खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) के आंकड़ों का उल्लेख करते हुए बताया कि आदिवासी लोग, विश्व में शेष जैवविविधता के लगभग 80 फीसदी के रखवाले हैं। इसके बावजूद हर दो सप्ताह में एक आदिवासी भाषा ख़त्म हो जाती है। जो खतरे की घंटी है।
महासभा प्रमुख ने सभी देशों से आदिवासी समुदायों के साथ मिलकर कार्य करने का आग्रह किया ताकि उनके अधिकारों की रक्षा की जा सके, जिनमें अपनी भाषाओं में शिक्षा व संसाधनों की सुलभता का अधिकार भी शामिल है। साथ ही यह सुनिश्चित किया जाना होगा कि इन समुदायों और उनके ज्ञान का शोषण न हो।
उन्होंने आगे कहा कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आदिवासी समुदायों के साथ अर्थपूर्ण विचार-विमर्श को बढ़ावा दिया जाना होगा और उन्हें निर्णय-निर्धारण प्रक्रिया के हर चरण में सम्मिलित करना होगा।
भारत शीर्ष पर
संयुक्त राष्ट्र संघ के सांस्कृतिक संगठन यूनेस्को की रिपोर्ट एटलस ऑफ वर्ल्ड्स लार्जेस्ट लैंग्वेज इन डेंजर-2009 में कहा गया है कि मौजूदा सभी भाषाओं में से तकरीबन 90 फीसदी भाषाएं अगले 100 वर्षों में अपना वजूद खो सकती हैं। जिन देशों की भाषाएं खतरे में हैं उनमें भारत शीर्ष पर है। यहां 196 भाषाएं मिटने की कगार पर हैं। दुनियाभर में बढ़ रहे आर्थिक और बौद्धिक साम्राज्यवाद के चलते अंग्रेजी या दूसरी वर्चस्व वाली भाषाएं तेजी से विकास कर रही हैं, जो भाषाएं सीधे तौर पर आर्थिक रूप से जुड़ी हैं और शासन-सत्ता को प्रभावित करती हैं। वे अपना विकास तेजी से कर रही हैं। वहीं जो भाषाएं कमजोर वर्गों के समुदायों की हैं, वे नष्ट हो रही हैं, क्योंकि उनमें रोजगार की कोई गारंटी न होने के कारण उस समुदाय के लोग भी भाषाई पलायन करके उस भाषा का दामन थाम रहे हैं, जिनमें रोजगार की सुरक्षा मिलती है। विभिन्न सर्वेक्षणों से यह स्पष्ट हो चुका है कि झारखंड की आठ भाषाएं कुडख, मुंडारी, हो, खडिय़ा, असुरी, भूमिज, बिरहोरी, मलतो आदि मातृभाषाएं लगभग विलुप्त होने की कगार पर है। भारत में खत्म होने वाली भाषाओं में से ज्यादातर क्षेत्रीय और कबीलाई बोलियां हैं। पिछले 50 साल में भारत की करीब 20 फीसदी भाषाएं विलुप्त हो गई हैं। वर्ष 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में 1652 भाषाएं थीं, जिनकी संख्या 2001 में घटकर मात्र 234 रह गई है। पिछले पांच दशक में भारत 1418 भाषाएं खो चुका है।