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पर्दे के पीछे का असली खिलाड़ी

चाचा-भतीजे के बीच इस जंग में पर्दे के पीछे का असली खेल तो भाजपाई खेल रहे हैं। इस खेल की शुरुआत उसी समय हो गयी थी जब वर्ष 2012 में मुलायम ने शिवपाल की नाराजगी को दरकिनार करते हुए अपने बेेटे अखिलेश यादव के हाथों में सत्ता की चाबी सौंप दी थी। भाजपा नेतृत्व ने उसी समय चाचा-भतीजे के बीच की तल्खी और सपा के भविष्य को ताड़ लिया था। तभी से भाजपा लगातार इसी प्रयास में रही कि किस प्रकार यूपी से सपा के प्रभाव का समाप्त किया जा सके। ऐसा इसलिए कि धर्म और जातिवाद वाले इस प्रदेश में सपा-बसपा जिस प्रकार की राजनीति करती आयी है उससे पार पाना भाजपा के लिए आसान नहीं था। भाजपा की यह कूटनीति विधानसभा चुनाव 2017 में भी रंग लायी और लोकसभा चुनाव में भी उसने अपना रंग दिखाया। अब जबकि चाचा-भतीजा खुलकर एक-दूसरे के विरोध में आ गए हैं लिहाजा भविष्य में सपा के उबरने की उम्मीद जल्द नजर नहीं आती।
राकेश श्रीवास्तव
‘डिवाइड एंड रूल’, यूपी से सपा के प्रभाव को समाप्त करने के लिए भाजपा की यह पाॅलिसी अब रंग दिखा रही है। सपा और प्रसपा के बीच विलय की संभावना को दरकिनार करते हुए जहां एक ओर सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने अड़ियल रुख अख्तियार कर लिया है तो वहीं दूसरी ओर प्रसपा प्रमुख शिवपाल यादव ने भी अपने भतीजे को राजनीति का असली रंग दिखाने की ठानी है। अर्थात अब विलय नहीं बल्कि आर-पार। इस आर-पार का फायदा यदि किसी को पहुंचेगा तो वह भाजपा को पहुंचेगा।
भाजपा ने अपनी इस योजना को काफी पहले से अंजाम देना शुरु कर दिया था। लोकसभा चुनाव से काफी पहले यादव परिवार के बीच विघटन के बीज रोपे जा चुके थे। ऐन लोकसभा चुनाव तैयारियों के दौरान शिवपाल यादव का सपा से अलग होकर प्रसपा का गठन करना भाजपाई कूटनीति का ही एक हिस्सा था। उस वक्त सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने भी कुछ ऐसा ही कहा था।
हाल ही में सपा के एक वरिष्ठ नेता से मुलाकात हुई। सपा नेता का कहना था कि वे यह बात अच्छी तरह से जानते थे कि आज नहीं तो कल भाजपा अपने मकसद में पूरी तरह से कामयाब होगी। भाजपा अपनी ‘विपक्ष विहीन नीति’ पर काफी समय पहले से काम कर रही है। सपा नेता के मुताबिक भाजपा ने लगभग सात वर्ष पूर्व वर्ष 2012 में अपनी इस योजना पर उसी दिन से काम करना शुरु कर दिया था जिस दिन मुलायम ने शिवपाल यादव को नजरअंदाज करते हुए सूबे की बागडोर अपने बेटे अखिलेश यादव को सौंपी थी। उस वक्त शिवपाल यादव और आजम खां से लेकर तमाम सपा के वरिष्ठ नेता मुलायम के इस दांव से बेहद खफा थे। पार्टी पूरी तरह से टूटने की कगार पर थी लेकिन ऐन वक्त पर मुलायम का राजनीतिक अनुभव रंग दिखा गया और वे सपा को पुनः एकसूत्र में बांधने में कामयाब हो गए लेकिन मन का मैल पूरी तरह से नहीं धुला था। बस इसी का फायदा उठाया भाजपा नेतृत्व ने। भाजपा के कई बडे़ नेता लगातार गुपचुप तरीके से शिवपाल के सम्पर्क में बने रहे। उस वक्त शिवपाल को उम्मीद थी कि मुलायम अपने फैसले पर पुनः विचार करेंगे और पार्टी में उन्हें कोई ऐसी जिम्मेदारी सौंपेंगे जिससे परिवार के बीच रार समाप्त हो सके। दूसरी ओर अखिलेश यादव पार्टी पर अपना एकछत्र राज कायम करने के उद्देश्य से अपने चाचा शिवपाल की जड़ों को खोखला करते चले गए। अखिलेश ने अपने कार्यकाल में न सिर्फ शिवपाल यादव के प्रभाव का कम किया बल्कि कई ऐसे अधिकार भी छीन लिए जो शिवपाल के राजनीतिक जीवन के लिए बेहद महत्वपूर्ण थे। अखिलेश सरकार के पांच वर्ष अपने चाचा से तनातनी में कब गुजर गए, पता ही नहीं चला। एहसास तब हुआ जब लोकसभा चुनाव की तैयारियां शुरु हुईं और शिवपाल यादव ने प्रसपा नाम से एक अलग दल बनाकर सपा को ही चुनौती दे डाली। इस पूरे खेल में भाजपा की भूमिका ठीक वैसी थी जैसे महाभारत में मामा शकुनी की। लगभग नौ वर्ष बाद की स्थिति यह है कि जो शिवपाल यादव सपा के लिए करने-मरने तक तैयार हो जाते थे वे अब सपा को ही जड़ से मिटाने की कसमें खा रहे हैं। चाचा-भतीजे के बीच यह स्थिति विगत दिनों तब और खराब हो गयी जब सपा ने शिवपाल यादव की सदस्यता रद्द करने की याचिका दायर की। विधानसभा में सपा के नेता और नेता प्रतिपक्ष रामगोविंद चैधरी की तरफ से दायर इस याचिका में जसवंतनगर सीट से सपा विधायक शिवपाल पर दलबदल का आरोप लगाया गया है। विधानसभा सचिवालय ने याचिका दायर होने की अधिसूचना जारी कर दी है। माना जा रहा है कि याचिका दायर कराकर अखिलेश ने साफ कर दिया है कि अब चाचा शिवपाल के साथ उनका समझौता नहीं हो सकता। हालांकि विधानसभा चुनाव 2017 और लोकसभा चुनाव 2019 में शिवपाल ने सपा के खिलाफ ताल ठोंककर अपनी तरफ से इस बात का संकेत पहले ही दे दिया था कि सपा से अब समझौता सम्भव नहीं। इस असम्भव पर अंतिम मुहर अखिलेश ने लगा दी है। स्पष्ट है कि अब विलय की संभावना पूरी तरह से समाप्त हो चुकी है।
शिवपाल यादव के खिलाफ सपा के इस फैसले ने सपा और प्रसपा नेताओं के बीच अपने राजनीतिक अस्तित्व को लेकर सोंचने पर मजबूर कर दिया है। सपा-प्रसपा के तमाम कार्यकर्ता, पदाधिकारी और विधायक इस असमंजस में हैं कि वे जाएं तो जाएं कहां। ये वह नेता हैं जो अभी तक इस उम्मीद में थे कि दोनों के बीच समझौता हो जायेगा। लोकसभा चुनाव के दौरान प्रसपा प्रमुख शिवपाल यादव ने इस तरह के संकेत भी दिए थे लेकिन अखिलेश से बसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला लिया तो शिवपाल पूरी तरह से कन्नी काट गए।
मौजूदा स्थिति यह है कि सपा और प्रसपा के पदाधिकारी से लेकर नेता और विधायक तक गहन चिंतन में हैं। बहुत जल्द दोनों ही दलों में व्यापक स्तर पर फेरबदल देखना पड़े तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

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