उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की तारीखों का एलान होते ही राजनीतिक पार्टियों में आरोप-प्रत्यारोप और दल-बदल का खेल चरम पर है। इसमें सभी राजनीतिक पार्टियां सक्रिय हैं। लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा उत्तर प्रदेश की हो रही है। सबकी निगाहें भी उत्तर प्रदेश पर ही टिकी हुई हैं।

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दरअसल, छह महीने पहले बंगाल चुनाव से पहले भाजपा ने भी इसी तरह का बड़ा माहौल बनाया गया था। इस दौरान टीएमसी के करीब 140 नेताओं ने भाजपा का दामन थामा था। पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी समेत कई दिग्गज नेता इनमें शामिल थे। कुल ऐसे 35 विधायक थे, जो टीएमसी से भाजपा में आए थे। इसके चलते भाजपा को टीएमसी से बराबर की टक्कर में माना जाने लगा था। लेकिन नतीजे आए तो बड़ा अंतर सामने था। फिर वही नेता खुद टीएमसी में ही चले गए। उनके चुनाव से पहले टूटने की वजह यह थी कि टीएमसी में उनके सामने टिकट कटने का खतरा था। ऐसे में वह भाजपा में चले गए और फिर जीत या हार के बाद ज्यादातर सत्ताधारी दल में ही लौट आए। यहां तक कि सीटें जीतने के मामले में भाजपा के लिए फिसड्डी भी साबित हुए।
भाजपा ने टीएमसी से आए 19 विधायकों को चुनाव में उतारा था, लेकिन इनमें से 6 को ही जीत मिल पाई थी। इसकी वजह यह थी कि ये नेता अपने साथ ऐंटी-इनकम्बेंसी लेकर आए थे। जनता इनसे नाराज थी और टीएमसी इनमें से ज्यादातर को टिकट देने के मूड नहीं थी। ऐसे में टीएमसी के लिए यह स्थिति फायदेमंद रही। उनके ऐंटी-इनकम्बेंसी से बचते हुए नए नेताओं को मौका मिला और बहुमत हासिल किया। भाजपा को लेकर भी यही कहा जा रहा है कि पार्टी यूपी में बड़ी संख्या में टिकट काटने की तैयारी में है। इसकी वजह से भी तमाम नेता भाजपा छोड़ रहे हैं।