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कृषि कानून बनाम काला कानून

किसान के हित में क्या अच्छा है और क्या बुरा, यह वास्तव में किसान ही बेहतर समझ सकता है। मगर सरकार अड़ी हुई है कि वह अपने निर्णय से पीछे नहीं हटेगी। सरकार के इसी अड़ियल रवैये के चलते किसान करीब पिछले तीन महीनों से आंदोलनरत हैं। सरकार का तर्क है कि नए कøषि कानून किसानों के हित में हैं, जबकि किसान इन्हें काला कानून बताकर वापस लेने की मांग कर रहे हैं। किसान आर-पार की लड़ाई लड़ने के मूड में हैं।

अंग्रेजी में एक कहावत है, ‘डस्क टू डाॅन – शो मस्ट गो आन’। देश में तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे किसान आंदोलन की वर्तमान स्थिति को इसी परिपे्रक्ष्य में समझा जा सकता है। सितम्बर माह, 2020 से चल रहे इस आंदोलन की निरंतरता तमाम अवरोधों और केंद्र सरकार के हस्तक्षेप के बावजूद यदि अभी तक बनी हुई है तो यह जरूर कहा जा सकता है कि आंदोलनरत किसानों और इन किसानों का समर्थन कर रहे लोगों ने एक बात ठान ली है कि कुछ भी हो जाये, ‘शो मस्ट गो आन’। यह लोकतांत्रिक तरीके से विरोध- प्रदर्शन करने के उस अधिकार का शो है जिसे देश के संविधान ने प्रत्येक व्यक्ति को दिया है। केंद्र सरकार, इन लोकतांत्रिक विरोधों को जिस रूप में ले रही है उस रवैये को देखकर विशेषकर जब केंद्र सरकार के आदेश पर आंदोलनरत किसानों पर आंसू गैस दागे गए, पानी की तेज बौछारें डाली गयीं, लाठियां चलवाई गयीं और उनके रास्तों में घातक कीलें गड़वाई गयीं, तो इन सबको देखकर महात्मा गांधी द्वारा कहा एक कथन याद आता है। उन्होंने कहा था कि आलोचनाओं से चिढ़ना भी एक हिंसा है।

हमने गांधी का दौर नहीं देखा, बस साहित्य में दर्ज उनके समय को पढ़ा है, उनके विचारों को परखा है, उनके प्रयोगों के उल्लेखों का अवलोकन किया है, उस बाबत एक बात जो विरोधों को लेकर स्पष्ट हुई वह यह कि किसी भी टीकाकार को अपना विरोधी नहीं मानना चाहिए कि वह व्यक्तिगत पूर्वाग्रह अथवा अरुचि से ऐसा करता है।

8 फरवरी 2021 को जब राज्यसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रपति अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव का जवाब दे रहे थे उन्होंने कहा,‘हम लोग कुछ शब्दों से बड़े परिचित हैं। श्रमजीवी बुद्धिजीवी ये सारे शब्दों से परिचित हैं। लेकिन मैं देख रहा हूं कि पिछले कुछ समय से इस देश में एक नई जमात पैदा हुई है और वो है आंदोलनजीवी। ये जमात आप देखोगे वकीलों का आंदोलन है, वहां नजर आएंगे। स्टूडेंट का आंदोलन है वो वहां नजर आएंगे। मजदूरों का आंदोलन है वो वहां नजर आएंगे। कभी पर्दे के पीछे कभी पर्दे के आगे। ये पूरी टोली है जो आंदोलनजीवी है। वो आंदोलन के बिना जी नहीं सकते हैं। हमें ऐसे लोगों को पहचानना होगा।

इस बयान पर गांधी के उपर्युक्त दर्शन की याद आयी, लेकिन यह भी सत्य है कि इस दर्शन को जीवन में उतारना उतना ही कठिन है जितना कुछ बड़े मीडिया संस्थानों से पत्रकारिता की उम्मीद करना।

तीन नए कृषि कानूनों की बात करें तो लगभग तीन महीनों से दिल्ली-उत्तर प्रदेश के टिकरी, गाजियाबाद और सिंधु बाॅर्डर पर दिन और रात लगातार इन कृषि कानूनों का विरोध किया जा रहा है। आइये समझते हैं कि ये कृषि कानून-2020 क्या हैं और इनमें ऐसा क्या है जिसका किसानों द्वारा विरोध किया जा रहा है।

1. कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून, 2020

इस कानून में एक ऐसा इकोसिस्टम बनाने का प्रावधान है जहां किसानों और व्यापारियों को राज्य की एपीएमसी (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमेटी) की रजिस्टर्ड मंडियों से बाहर फसल बेचने की आजादी होगी। इसमें किसानों की फसल को एक राज्य से दूसरे राज्य में बिना किसी रोक-टोक के बेचने को बढ़ावा दिया गया है। बिल में मार्केटिंग और ट्रांसपोर्टेशन पर खर्च कम करने की बात कही गई है ताकि किसानों को अच्छा दाम मिल सके। इसमें इलेक्ट्रोनिक व्यापार के लिए एक सुविधाजनक ढांचा मुहैया कराने की भी बात कही गई है।

आंदोलनरत किसान का पक्ष

किसानों का मानना है कि इसके तहत अगर किसान एपीएमसी की रजिस्टर्ड मंडियों से बाहर अपनी फसल बेचेगा तो जो एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) उसे यहां मिलता था वह धीरे-धीरे कम हो जाएगा और एक समय यह बंद भी हो सकता है। यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, संसद में यह कहते हैं कि एमएसपी थी, है और रहेगी तो उसे इन तीनों कानूनों में कहीं इंगित क्यों नहीं किया गया? एक गरीब किसान या मिडिल क्लास किसान से यह उम्मीद करना कि वह अपने सबसे पास की मंडी में न जाकर दूसरी जगह या दूसरे राज्य में जाकर अपनी फसल बेचेगा, यह असंगत है, क्योंकि इसके लिए ट्रांसपोर्ट का भारी खर्चा लगेगा।

सबसे बड़ी बात यह है कि इससे राज्य के राजस्व में भी कमी आएगी क्योंकि जब किसान इन मंडियों में नहीं जाएगा तो सरकार को मंडी फीस भी नहीं मिलेगी। सवाल यह है कि राजस्व के इस नुकसान की भरपाई राज्य सरकारें कहां से करेंगी?

2. कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून, 2020

इस कानून में कृषि करारों (काॅन्ट्रैक्ट फार्मिंग) को उल्लिखित किया गया है। इसमें काॅन्ट्रैक्ट फार्मिंग के लिए एक राष्ट्रीय फ्रेमवर्क बनाने का प्रावधान किया गया है। इस कानून के तहत किसान कृषि व्यापार करने वाली फर्मों, प्रोसेसर्स, थोक व्यापारी, निर्यातकों या बड़े खुदरा विक्रेताओं के साथ काॅन्ट्रैक्ट करके पहले से तय एक दाम पर भविष्य में अपनी फसल बेच सकते हैं। पांच हेक्टेयर से कम जमीन वाले छोटे किसान काॅन्ट्रैक्ट से लाभ कमा पाएंगे। बाजार की अनिश्चितता के खतरे को किसान की जगह काॅन्ट्रैक्ट फार्मिंग करवाने वाले प्रायोजकों पर डाला गया है। अनुबंधित किसानों को गुणवत्ता वाले बीज की आपूर्ति सुनिश्चित करना, तकनीकी सहायता और फसल स्वास्थ्य की निगरानी, ऋण की सुविधा और फसल बीमा की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी। इसके तहत किसान मध्यस्थ को दरकिनार कर पूरे दाम के लिए सीधे बाजार में जा सकता है। किसी विवाद की सूरत में एक तय समय में एक तंत्र को स्थापित करने की भी बात कही गई है।

आन्दोलनरत किसान का पक्ष

 

इस कानून में सशक्तिकरण और संवर्धन जैसे भारी शब्दों का प्रयोग किया गया है लेकिन ये शब्द देश के सभी किसानों के लिए हैं भी या नहीं, इस पर संशय इसलिए है क्योंकि इस कानून में उन किसानों को नजरअंदाज किया गया है जिनके पास भूमि नहीं है। एक उदाहरण से समझिये गांवों में अभी भी बहुत से किसान हैं जिनके पास खुद के खेत नहीं हैं लेकिन वे बंटाई-खेती के माध्यम से अपनी आजीविका चला रहे हैं। उपज का आधा हिस्सा इस सिस्टम में बांट दिया जाता है। इस कानून में यह कहीं स्पष्ट नहीं लिखा गया है कि भूमिहीन किसानों के लिए इसमें कहां प्रावधान है। इसके बाद यह भी बड़ा सवाल है कि किसी विवाद की स्थिति में निजी कंपनी, निर्यातक या प्रायोजक को ही बढ़त मिलने की अधिक संभावना है।

3 . आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून 2020

इस कानून में अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाने का प्रावधान है। इसका अर्थ यह हुआ कि सिर्फ युद्ध जैसी ‘असाधारण परिस्थितियों’ को छोड़कर अब जितना चाहे इनका भंडारण किया जा सकता है। इस कानून से निजी सेक्टर का कृषि क्षेत्र में डर कम होगा, क्योंकि अब तक अत्यधिक कानूनी हस्तक्षेप के कारण निजी निवेशक आने से डरते थे। कृषि इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश बढ़ेगा, कोल्ड स्टोरेज और फूड सप्लाई चेन का आधुनिकीकरण होगा। यह किसी सामान के मूल्य की स्थिरता लाने में किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को मदद करेगा। प्रतिस्पर्धी बाजार का वातावरण बनेगा और किसी फसल के नुकसान में कमी आएगी।

आंदोलनरत किसान का पक्ष

किसी फसल के अधिक भंडारण से असाधारण स्थिति में उनके मूल्यों में जबरदस्त इजाफा होगा, जिसे बाद में नियंत्रित करना मुश्किल होगा। इस नए कृषि कानून से कृषि क्षेत्र देश के पूंजीपतियों के हाथों में चला जाएगा। क्योंकि किसी फसल के अधिक भण्डारण की सबसे ज्यादा क्षमता जिनके पास होगी वे काॅरपोरेट घराने की बड़ी-बड़ी कम्पनियां ही होंगी। फिर जब वह फसल बाजार में घटने लगेगी तो यही पूंजीपति अपने मर्जी से भंडारण की गई गए फसलों के दाम तय करेंगे और इस तीसरे कानून की वजह से धीरे-धीरे वही कम्पनियां ही किसानों को उनके मुताबिक दाम तय करने के लिए मजबूर करेंगी।

‘दि संडे पोस्ट’ ने गाजीपुर बाॅर्डर जाकर यह जानने की कोशिश की कि आखिर वे कौन से अहम मुद्दे हैं जिनको लेकर किसान पिछले तीन महीनों से धरने पर बैठे हैं। आंदोलनरत किसानों ने हमारी टीम से हुई बातचीत में बताया कि तीनों कानूनों को पढ़ने और समझने के बाद ही हम इन कानूनों को काला कानून कह रहे हैं, ‘आप एक रिपोर्ट से समझिये कि लगभग 86 प्रतिशत छोटे किसान एक जिले से दूसरे जिले में नहीं जा पाते, किसी दूसरे राज्य में जाने का तो सवाल ही नहीं उठता। ये कानून बाजार के लिए बना है, किसान के लिए नहीं। इस बात को समझने की जरूरत है। आप देखिये दूसरे कानून के अनुसार इससे किसान नई तकनीक से जुड़ पाएंगे, पांच एकड़ से कम जमीन वाले किसानों को काॅन्ट्रैक्टर्स से फायदा मिलेगा। पर काॅन्ट्रेक्ट! मतलब किसान अपनी ही जमीन पर मजदूर हो जाएगा। तीसरे कानून के तहत सरकार खुद जमाखोरी को बढ़ावा देने का कार्य कर रही है। इस बात की क्या गारंटी है कि इससे कालाबाजारी नहीं होगी?

किसानों ने आगे कहा कि, ‘आज किसान इन कानूनों का विरोध कर रहे हैं कल जब आम जनता को यह समझ आ जायेगा कि इससे उनकी जेब पर सीधा प्रहार हो रहा है तो वो भी हमारे साथ अधिक से अधिक संख्या में जुड़ेंगे।’ ‘दि संडे पोस्ट’ ने राकेश टिकैत से भी बातचीत की, एक सवाल पर उन्होंने कहा कि, ‘यह देश जिस बुनियाद पर खड़ा है उसकी नींव भी आंदोलन से पड़ी। मुझे गर्व है कि मैं आंदोलनजीवी हूं। हम मांग करते हैं केंद्र सरकार से कि वो इन तीनों काले कानूनों को वापस ले और क्योंकि अगर वे इन कानूनों को वापस नहीं लेती हैं तो यह आंदोलन और भी लंबा चलेगा।’

इस आंदोलन का भविष्य क्या होगा इसके लिए अभी इंतजार करना पड़ेगा। 11 अगस्त 1987 के दिन महेन्द्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में हुए सिसोली के इतिहास को राकेश टिकैत दोहरा पाते हैं या नहीं यह भी समय बताएगा, लेकिन फिलहाल इतना अवश्य कहा जा सकता है कि लोकतांत्रिक विरोध प्रदर्शन या समय- समय पर देश में जनांदोलनों का होना निश्चित तौर पर देश को मजबूती देने का कार्य करते हैं।

  • संदीप सिंह

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