जब शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 बनाया गया और इसे अगले ही वर्ष नए सत्र 2010 में लागू किए जाने की बात हुई तो लखनऊ के कई नामचीन स्कूलों ने नाक-भौं सिकोड़ी और कई स्कूलों के संचालकों ने इस अधिनियम को ही कोर्ट में चुनौती दे डाली लेकिन कोर्ट ने स्कूल संचालकों की सुनने की बजाए उन्हें फटकार लगाते हुए अधिनियम का सख्ती से पालन कराए जाने का आदेश सुना दिया, साथ ही स्कूलों को राहत पहुंचाने की गरज से सरकार की तरफ से प्रति छात्र प्रतिपूर्ति दिए जाने का आदेश भी जारी किया। स्थिति यह है कि पिछले 6 वर्षों से निजी स्कूल संचालकों को प्रति छात्र की दर से प्रतिपूर्ति का भुगतान नहीं किया जा रहा। स्कूल संचालकों में इस बात को लेकर रोष है। उनका कहना है कि यदि सरकार ने नया सत्र शुरु होने से पहले 6 वर्षों की बकाया रकम नही दी तो आरटीई-2009 के दिशा-निर्देशों का पालन करना मुश्किल होगा। इस सम्बन्ध में अनएडेड प्राइवेट स्कूल एसोसिएशन की तरफ से एक पत्र शासन के पास भेजा गया है। इस पत्र में स्पष्ट कहा गया है कि यदि प्रतिपूर्ति का भुगतान नही किया गया तो अगले सत्र से गरीब छात्रों को निःशुल्क दाखिला नहीं दिया जायेगा और इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जायेगी।
देश में ‘आरटीई’ यानी शिक्षा का ‘अधिकार अधिनियम-2009’, इस अधिनियम को अप्रैल 2010 से पूरे देश में लागू किया जा चुका है लेकिन आठ वर्ष से अधिक समय बीत जाने के बावजूद इस अधिनियम का अक्षरशः पालन नही हो पा रहा है, या यूं कह लीजिए कि यह अधिनियम नामचीन प्राइवेट स्कूलों और सरकारी लोकसेवकों की अकर्मण्यता के चलते प्रभावी ढंग से लागू नही हो पा रहा है तो शायद गलत नही होगा।
राज्य सरकारें भले ही अपने-अपने राज्य में इस अधिनियम को सुचारू ढंग से लागू किए जाने का दावा कर रही हों लेकिन हकीकत यह है कि नामचीन निजी स्कूलों का प्रबंधतंत्र इस अधिनियम की खुलेआम धज्जियां उड़ा रहा है और यह मौका मिल रहा है सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की अकर्मण्यता के चलते।
लगभग आठ वर्ष का लम्बा सफर बीत जाने के बावजूद इस अधिनियम को प्रभावी और पूरी तरह से लागू करने में आ रही दिक्कतों पर यदि एक नजर डाली जाए तो काफी हद तक तस्वीर साफ हो जाती है और यह बात भी प्रमाणित हो जाती है कि इस लापरवाही के पीछे जितनी जिम्मेदारी निजी स्कूलों की है उससे कहीं अधिक लापरवाह सरकारी कारिन्दे हैं।
नामचीन निजी स्कूलों के प्रबंध तंत्र और सरकारी कारिन्दों की लापरवाही से सम्बन्धित एक ऐसा ही मामला उस वक्त प्रकाश में आया जब अनएडेड प्राइवेट स्कूल एसोसिएशन की तरफ से उत्तर प्रदेश शासन को एक पत्र लिखा गया। यह पत्र पिछले 6 वर्षों से निजी स्कूलों को सरकार की तरफ से प्रतिपूर्ति की बकाया धनराशि न मिलने पर शिकायत से सम्बन्धित है। ज्ञात हो आरटीई एक्ट की धारा 12(2) तथा सुप्रीम कोर्ट के 12 अप्रैल 2012 के अनुसार सरकारी तरफ से प्रतिपूर्ति दिए जाने का आदेश है। बस सरकारी कारिन्दों की इसी लापरवाही का फायदा उठाया यूपी की राजधानी लखनऊ के कुछ नामचीन प्राइवेट स्कूलों ने। एसोसिएशन की तरफ से शिक्षा विभाग को स्पष्ट चेतावनी दी गयी है कि यदि 6 वर्षों की बकाया धनराशि का भुगतान विभाग से नही किया गया तो आगामी शिक्षा सत्र में शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 के तहत किसी भी गरीब वर्ग के छात्र का दाखिला नही किया जायेगा। ज्ञात हो शिक्षा के अधिकार अधिनियम-2009 में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि प्राइवेट अनएडेड स्कूलों में अधिनियम-2009 का पालन किए जाने पर प्रति छात्र प्रतिपूर्ति का भुगतान सरकार द्वारा सुनिश्चित किया जाए। 12 अप्रैल 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सरकार को आदेश दिया था कि अनएडेड निजी स्कूलों को प्रति छात्र के हिसाब से प्रतिपूर्ति दी जाए। इसे शिक्षा विभाग के अधिकारियों का नाकारापन कहें अथवा रिश्वतखोरी के लिए किसी भी मामले को लम्बे समय तक लटकाए जाने की परपम्परा का निर्वहन, सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन भी यूपी सरकार के जिम्मेदार अधिकारियों ने नही किया। प्रथम दृष्टया इस तरह का गैर जिम्मेदाराना रवैया सीधे न्यायालय की अवमानना से जुड़ जाता है। देखा जाए तो ऐसे मामलों के दोषी अधिकारियों के खिलाफ विधि सम्मत कार्रवाई की जानी चाहिए।
गौरतलब हो कि आरटीई के सम्बन्ध में माननीय उच्च न्यायालय ने कहा था कि धारा 12(1)(सी) में निजी स्कूलों की 25 प्रतिशत सीटें गरीब बच्चों को देने की अनिवार्यता इसलिए अनुचित नही है क्योंकि शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 की धारा 12(2) के तहत इन स्कूलों को सरकार प्रतिपूर्ति का भुगतान करेगी जिससे निजी स्कूलों के संविधान के अनुच्छेद 19(जी) के मौलिक अधिकारों का हनन न होने पाए।
उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने वर्ष 2013 के एक शासनादेश (20 जून 2013) के माध्यम से प्रतिपूर्ति की अधिकतम धनराशि 450/ प्रति बच्चा प्रति माह निर्धारित की थी जो कि पूर्णतया आरटीई अधिनियम-2009 की धारा 12(2) और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय (12 अप्रैल 2012) के विरुद्ध है और देश के कानून का खुला उल्लंघन है। बताते चलें कि आर.टी.ई. अधिनियम 2009 की धारा 12(2) में तथा सुप्रीम कोर्ट के 12 अप्रैल 2012 के निर्णय के अनुसार सरकारी स्कूलों में ‘प्रति-छात्र व्यय’ एवं ‘निजी स्कूल की प्रति छात्र फीस’ में जो भी धनराशि कम होगी, उसी का भुगतान प्रतिपूर्ति के रूप में निजी स्कूलों को शासन द्वारा किया जायेगा। शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 की धारा 12(2) के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश सरकार ने उत्तर प्रदेश आर.टी.ई. नियमावली 2011 के नियम 8(2) में इस प्रतिपूर्ति की गणना का फार्मूला दिया है जिससे प्रतिपूर्ति की धनराशि पारदर्शी रूप से हर वर्ष 30 सितम्बर को निकालकर सरकारी ‘प्रति-छात्र व्यय’ घोषित किया जाना चाहिये था लेकिन स्थिति यह है कि पिछले 6 वर्षों से उत्तर प्रदेश सरकार ने ‘प्रति-छात्र व्यय’ निर्धारित तिथि (हर वर्ष 30 सितम्बर) को घोषित ही नहीं किया है जो कि कानून का खुला उल्लंघन है।
इस सन्दर्भ में राजधानी लखनऊ के निजी स्कूल संचालक पिछले छह वर्षों से लगातार यही कहते आ रहे हैं कि बेसिक शिक्षा के अधिकारी पिछले 6 वर्षों से लगातार मौखिक रूप से आश्वासन देते चले आ रहे हैं कि ‘आप लोग दाखिला ले लीजिए प्रतिपूर्ति की बकाया धनराशि शिक्षा के अधिकार अधिनियम-2009 के अनुसार दे दी जायेगी और भविष्य में आरटीई एक्ट के अनुसार ही प्रतिपूर्ति की धनराशि समय पर दी जाती रहेगी लेकिन हर बार उनका मौखिक आश्वासन महज छलावा ही नजर आया, प्रतिपूर्ति राशि किसी स्कूल को नही दी जा सकी। लेकिन इस बार पेंच फंसता नजर आ रहा है। यदि जल्द ही पिछले 6 वर्षों की बकाया प्रतिपूर्ति राशि अनएडेड स्कूलों को नही दी गयी तो निश्चित तौर पर आरटीई एक्ट-2009 की धज्जियां उड़ने से कोई नही रोक पायेगा। यहां तक कि देश की अदालतें तक इस अधिनियम के तहत स्कूलों पर दबाव नही बना पायेंगी।
अनएडेड प्राइवेट स्कूल एसोसिएशन ने स्पष्ट कह दिया है कि यदि बकाया प्रतिपूर्ति का भुगतान स्कूलों को नही किया गया तो निश्चित तौर पर अगले शिक्षा सत्र में आरटीई एक्ट-2009 के तहत किसी भी बच्चे का दाखिला नही किया जायेगा।
फिलहाल मामला अब फंसता नजर आ रहा है क्योंकि एक तरफ अनएडेड प्राइवेट स्कूल एसोसिएशन नियमों के तहत अपने अधिकार को लेकर अड़ा हुआ है तो दूसरी ओर बेसिक शिक्षा विभाग की मुश्किल यह है कि उसका कोष खाली है।