- प्रियंका यादव
घरेलू हिंसा से पीड़ित लाखों पुरुष लंबे समय से राष्ट्रीय महिला आयोग की तर्ज पर पुरुष आयोग की मांग कर रहे हैं। लेकिन आज तक पुरुषों को ऐसे अपराधों से राहत पहुंचाने वाले कानून नहीं बन पाए हैं जिसके कारण घरेलू हिंसा से पीड़ित लाखों पुरुषों ने आत्महत्या तक कर ली। अब सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की है जिसमें कहा गया है कि शादीशुदा पुरुषों के आत्महत्या के मामलों से निपटने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए जाए। इसके अलावा पुरुषों के लिए महिला आयोग के समान ही पुरुष आयोग भी बनाया जाए
भारत में घरेलू हिंसा के मामलों को महिलाओं तक सीमित मानते हुए कानून बने हैं। ऐसे कानून ‘लिंग निरपेक्ष’ (जेंडर न्यूट्रल) नहीं हैं। कई बार घरेलू हिंसा के कानूनों का गलत फायदा महिलाएं उठा लेती हैं, जिसका खामियाजा पुरुषों को भुगतना पड़ता है। पुरुषों को घरेलू हिंसा से बचाने के लिए कानून बनाने की मांग समय-समय पर उठती रही है। बीते दिनों सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई है। जिसमें कहा गया है कि शादीशुदा पुरुषों में आत्महत्या के मामलों से निपटने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए जाएं। इसके अलावा पुरुषों के लिए महिला आयोग के समान ही पुरुष आयोग भी बनाया जाए। ऐसे में कहा जा रहा है कि घरेलू हिंसा से पीड़ित पुरुषों के लिए उम्मीद की नई किरण जगने लगी है।
सर्वोच्च न्यायालय में यह याचिका वकील महेश कुमार तिवारी ने दायर की है। अपने पक्ष को मजबूत करते हुए उन्होंने इस याचिका में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ‘एनसीआरबी’ की देश में पारिवारिक कारणों से होने वाली आत्महत्याओं का हवाला दिया है। रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2021 में देश में 1 लाख 64 हजार 33 लोगों ने आत्महत्या की। इन लोगों में से 81 हजार 63 पुरुष थे और 28 हजार 680 महिलाएं थीं। 33.2 प्रतिशत पुरुषों ने परिवारिक समस्याओं के चलते आत्महत्या की तो वहीं महिलाओं में यह आंकड़ा 4.8 प्रतिशत है। इसलिए लगातार पुरुषों के लिए यह मांग की जा रही है कि केंद्र सरकार द्वारा पुलिस विभाग को दिशा निर्देश दिए जाए, जिससे घरेलू हिंसा के शिकार लोगों की शिकायतों पर जल्द से जल्द सुनवाई हो सके।
गौरतलब है कि भारत में घरेलु हिंसा की रोकथाम के लिए बने एकपक्षीय हैं। एक समान अपराधों के लिए पुरुष को तो दंडित किया जा सकता है लेकिन महिलाओं को नहीं। इसी संदर्भ में पिछले साल केरल हाईकोर्ट द्वारा कहा गया था कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा-376 लैंगिक रूप से समान नहीं है। इसलिए यह चिंता व्यक्त की गई कि अगर कोई महिला शादी के झूठे वायदे के तहत किसी पुरुष को झांसा देती है तो उस पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता जबकि इसी अपराध के लिए किसी पुरुष पर मुकदमा किया जा सकता है। सम्भवतः इसलिए भारत में अब एक ऐसा वर्ग लगातार उभर रहा है जिसका मानना है कि कई भारतीय कानून महिलाओं के हक में हैं, इसलिए पुरुषों की सुनवाई नहीं होती है। बीबीसी की रिपोर्ट में यह उल्लेख किया गया है कि यह वर्ग अब महिला आयोग की तर्ज पर ‘पुरुष आयोग’ की मांग कर रहा है।
अत्याचारों के खिलाफ पुरुष नहीं उठा पा रहे आवाज
‘दैनिक भास्कर’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक याचिका दायर करने वाले वकील महेश कुमार तिवारी का कहना है कि ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा जैसे देशों में घरेलू हिंसा का कानून एक समान है, जबकि भारत में इसमें असमानता है। यानी सिर्फ महिलाओं के लिए है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पास भी इसके लिए कोई कानून नहीं है जो इस समस्या को सुलझा सके। महेश कुमार तिवारी के अनुसार वह महिलाओं के खिलाफ नहीं हैं। वह बस पुरुषों को भी समान अधिकार मिल सके इतना चाहते हैं। पुरुष आयोग की मांग के समर्थन में जो तर्क दिए जाते रहे हैं, उनमें सबसे पहला और बड़ा तर्क यह है कि महिलाओं को सुरक्षा देने के जो कानून बने हैं, उनके दुरुपयोग से पुरुषों को प्रताड़ित किया जाता रहा है। इन कानूनों में दहेज कानून यानी धारा 498-ए सबसे प्रमुख है। ‘अमेरिका के जिस कानून से प्रेरित होकर यह कानून बनाया गया, वह अमेरिकी कानून जेंडर निरपेक्ष है और उसमें पुरुषों की प्रताड़ना के मामले भी देखे जाते हैं। लेकिन हमारे यहां यह कानून एकतरफा हो गया है। दहेज प्रताड़ना से संबंधित ज्यादातर मामले अदालत में ही गलत पाए गए हैं।
पुरुष आयोग की मांग पिछले कई सालों से की जा रही है। साल 2018 में भाजपा के दो सांसदों, हरिनारायण राजभर और अंशुल वर्मा ने भी संसद में पुरुष आयोग बनाने की मांग की थी। इस संदर्भ में उन्होंने कहा था कि राष्ट्रीय महिला आयोग की तर्ज पर राष्ट्रीय पुरुष आयोग जैसी भी एक संवैधानिक संस्था बननी चाहिए। इन सांसदों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इससे संबंधित पत्र भी लिखा था। जिसमें सांसद हरिनारायण ने यह दावा किया था कि पत्नी द्वारा प्रताड़ित कई पुरुष जेलों में बंद हैं। लेकिन कानून के एकतरफा रुख और समाज में हंसी के डर से वे खुद के ऊपर होने वाले घरेलू अत्याचारों के खिलाफ आवाज नहीं उठा पा रहे। करीब दो वर्ष पहले मद्रास हाई कोर्ट भी इस पर चिंता जाहिर कर चुकी हैं। उस दौरान एक मामला सामने आया था। हरियाणा के हिसार में रहने वाले एक व्यक्ति का वजन शादी के बाद कथित तौर पर पत्नी के अत्याचार की वजह से 21 किलो घट गया। इसी के आधार पर उसे हाईकोर्ट द्वारा तलाक की मंजूरी दे दी गई। बहुत से लोगों के लिए यह सोचना भी अविश्वसनीय है कि पुरुषों के साथ भी हिंसा हो सकती है। वजह है कि पुरुषों को हमेशा से मजबूत और ताकतवर माना जाता रहा है। लेकिन पारिवारिक विवादों को सुलझाने के लिए चलाए जा रहे कई परामर्श केंद्रों के आंकड़े इसका प्रमाण देते हैं कि पुरुष भी उत्पीड़न के शिकार हो रहे हैं। इसलिए साल 2020 में ‘सेव इंडिया फैमिली’ संस्था द्वारा भी पुरुष आयोग के गठन की मांग उठाई गई थी।
पुरुषों के लिए कानूनी स्थिति
पत्नी द्वारा लगाए गए झूठे आरोपों में अक्सर पतियों का जीवन कोर्ट-कचहरी में बीत जाता है। इसके अलावा ज्यादातर ऐसे पुरुष होते हैं जो अवसाद का शिकार होकर आत्महत्या तक कर लेते हैं। इसका दावा खुद कई महिलाएं भी करती हैं। महिलाओं ने माना है कि आईपीसी की धारा 498 का दुरुपयोग कई महिलाओं द्वारा किया गया है। धारा 498-ए के तहत अगर क्रूरता पति या पति के रिश्तेदार द्वारा की जाती है, भले ही महिला की शादी के 7 साल के भीतर संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो जाती है। इस अपराध के लिए अधिकतम कारावास 3 वर्ष है। पुरुष समेत महिलाओं के मुताबिक भी पुरुषों की बात सुनने के लिए पुरुष आयोग का गठन किया जाना चाहिए। इसी संदर्भ में वकील महेश तिवारी के मुताबिक पति के पास पत्नियों के समान कानूनी अधिकार नहीं है। हालांकि कुछ कानूनी अधिकार उनके पास अपनी सुरक्षा और मान-सम्मान के लिए मौजूद हैं।
हिंसा और उत्पीड़न के खिलाफ अधिकार : पुरुष घरेलू हिंसा के मामले में पुलिस से सहायता ले सकते हैं। अगर पति के साथ पत्नी मार-पीट कर रही है, उस पर गलत काम करने के लिए दबाव बना रही हो, उस दौरान वह 100 नंबर या फिर महिला हेल्पलाइन नंबर 1091 पर कॉल कर मदद ले सकता है।
स्वयं बनाई गई संपत्ति पर पूर्ण अधिकार : खुद से बनाई गई संपत्ति यानी स्व-अर्जित संपत्ति पर सिर्फ और सिर्फ पति का ही अधिकार होता है। पत्नी या बच्चों का उस पर कोई अधिकार नहीं होता। वह जिसे चाहे उसे दे सकता है या किसी को भी न देकर ट्रस्ट को दान कर सकता है।
मेंटल हैरेसमेंट पर पुलिस और कोर्ट में शिकायत : पति को मानसिक रूप से प्रताड़ित करने वाली पत्नी के खिलाफ पुलिस और कोर्ट दोनों की मदद ली जा सकती है।
तलाक के अधिकार : पत्नियों के समान ही पति को भी यह अधिकार है कि वह तलाक के लिए याचिका दायर कर सकता है। इस अधिकार का इस्तेमाल करने के लिए पति को अपनी पत्नी की सहमति की कोई जरूरत नहीं है। वह अपने ऊपर अत्याचार, जान का डर या मेंटल स्टेबिलिटी का जिक्र कर याचिका दायर कर सकता है।
भरण-पोषण का अधिकार : पत्नी की तरह ही पति को भी हिंदू मैरिज एक्ट में मेंटेनेंस यानी भरण-पोषण और रख-रखाव का अधिकार दिया गया है। मामले की सुनवाई के बाद उसे मिलने वाली मेंटेनेंस की रकम को न्यायालय तय करता है।
गौरतलब है कि देश में अभी तक ऐसा कोई सरकारी अध्ययन या सर्वेक्षण नहीं किया गया जिससे इस बात का पता लगाया जा सके कि घरेलू हिंसा में शिकार पुरुषों की तादाद कितनी है। लेकिन कुछ गैर सरकारी संस्थान इस दिशा में जरूर कार्य कर रहे हैं। ‘सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन’ और ‘माई नेशन’ नाम की गैर सरकारी संस्थाओं के एक अध्ययन के मुताबिक भारत में नब्बे फीसद से ज्यादा पति तीन साल की रिलेशनशिप में कम से कम एक बार घरेलू हिंसा का सामना कर चुके होते हैं। पुरुषों द्वारा जब कभी इस तरह के मामलों की शिकायत पुलिस या अन्य किसी संस्थान में भी की है तो उन पर कोई भरोसा नहीं करता, बल्कि इसके विपरीत शिकायत करने वाले व्यक्ति को मजाक का पात्र बना दिया जाता है।
ग्रामीण इलाकों में घरेलू हिंसा का शिकार होते पुरुष
बीते वर्ष नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 के आंकड़ों के मुताबिक 18 से 49 साल की उम्र की 10 फीसदी महिलाओं ने कभी न कभी अपने पति पर हाथ उठाया है, वह भी तब जब उनके पति ने उन पर कोई हिंसा नहीं की। इस सर्वे के दौरान 11 फीसदी महिलाएं ऐसी भी थीं, जिन्होंने माना कि बीते एक साल में उन्होंने पति के साथ हिंसा की है। सर्वे के मुताबिक उम्र बढ़ने के साथ-साथ पति के साथ हिंसा करने वाली महिलाओं की संख्या भी बढ़ जाती है। 18 से 19 साल की 1 फीसदी से भी कम महिलाओं ने पति के साथ हिंसा की, जबकि 20 से 24 साल की उम्र की करीब 3 फीसदी महिलाएं ऐसी हैं जिन्होंने पति पर हिंसा की। इसी तरह 25 से 29 साल की 3.4, 30 से 39 साल की 3.9, 40 से 49 साल 3.7 फीसदी महिलाओं ने पति के साथ मारपीट की थी। सर्वे के मुताबिक शहरों की बजाय ग्रामीण इलाकों में रहने वाली महिलाएं पति के साथ ज्यादा हिंसा करती हैं। शहरी इलाकों में रहने वाली महिलाएं 3.3, जबकि ग्रामीण इलाकों में ऐसी 3.7 फीसदी महिलाएं हैं।
वर्ष 2020 में डॉयचे वेले की एक रिपोर्ट अनुसार लॉकडाउन के दौरान कई ऐसे पुरुष हैं जो घरेलू हिंसा का शिकार हुए। इस दौरान ऐसे मामलों में इजाफा देखने को मिला। क्योंकि इस दौरान वे ज्यादा समय तक कपल साथ रहे हैं। ‘सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन’ की ओर से एक सर्वे कराया गया था जहां इंदौर की ‘पौरुष’ संस्था और ‘राष्ट्रीय पुरुष आयोग समन्वय समिति’, दिल्ली को पुरुष हेल्पलाइन पर कई सारी शिकायतें मिली थीं। जिससे पता चला था कि लॉकडाउन में पत्नियों द्वारा अपने पतियों को प्रताड़ित करने के मामलों में 36 फीसदी तक वृद्धि हुई थीं।