संविधान की प्रस्तावना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को हटाने की हालिया मांग ने एक बार फिर भारत में संविधान की आत्मा और आरएसएस की विचारधारा के बीच टकराव को उजागर कर दिया है। संघ सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले के बयान ने न सिर्फ राजनीतिक हलचल मचाने का काम कर दिखाया है, बल्कि यह सवाल भी खड़ा कर दिया कि क्या संविधान की मूल भावना को राजनीतिक समीकरणों के अनुरूप बदला जा सकता है?
भारतीय संविधान की प्रस्तावना एक प्रकार से उस आत्मा का घोष है, जो इस दस्तावेज के हर अनुच्छेद में प्रवाहित होती है। 1976 में 42वें संविधान संशोधन के तहत इसमें दो शब्द जोड़े गए- ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’। तब से लेकर आज तक, इन दोनों शब्दों को लेकर अलग-अलग राजनीतिक दृष्टिकोण उभरते रहे हैं, लेकिन हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले द्वारा सार्वजनिक मंच से इन शब्दों की वैधता और प्रासंगिकता पर सवाल उठाना एक नया मोड़ ले आया है।
होसबाले ने कहा कि ये दोनों शब्द बाबा साहेब अम्बेडकर के मूल संविधान में नहीं थे और इन्हें आपातकाल के दौर में जब न्यायपालिका और संसद दोनों कमजोर पड़ गए थे, जबरन जोड़ा गया। उन्होंने कहा कि इस विषय पर ‘पुनर्विचार’ की आवश्यकता है, यानी क्या ये शब्द प्रस्तावना में बने रहें या नहीं, इस पर बहस होनी चाहिए।
आरएसएस के इस विचार ने देश की राजनीति में एक बार फिर से बहस छेड़ दी है। कांग्रेस ने इस बयान पर तीव्र प्रतिक्रिया देते हुए आरएसएस और भाजपा पर ‘संविधान विरोधी मानसिकता’ रखने का आरोप लगाया है। कांग्रेस प्रवक्ताओं ने यह दावा किया है कि भाजपा का असली एजेंडा संविधान को बदलना है और हालिया लोकसभा चुनाव में ‘400 पार’ जैसे नारे इसी दिशा की ओर इशारा कर रहे थे।
यह बहस लेकिन केवल शब्दों की नहीं है। यह भारत की आत्मा, उसकी विविधता, और लोकतांत्रिक ढांचे की स्थिरता की भी बहस है। धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद न केवल प्रस्तावना में निहित सिद्धांत हैं, बल्कि भारत की नीतियों, उसके कानूनों, और उसकी सामाजिक संरचना में गहराई से समाहित हैं।
होसबाले के वक्तव्य के पीछे एक वैचारिक पृष्ठभूमि है। संघ के द्वितीय सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर की पुस्तक ‘बंच ऑफ थाॅट्स’ में भारतीय संविधान को ‘पश्चिमी संविधानों का बोझिल मिश्रण’ कहा गया था। इसमें यह भी कहा गया कि भारतीय संविधान में ‘राष्ट्रीय जीवन का उद्देश्य’ स्पष्ट नहीं है। इस सोच की आलोचना अक्सर होती रही है क्योंकि यह स्वतंत्रता संग्राम से उपजे लोकतांत्रिक और समानतावादी मूल्यों को चुनौती देती है। हालांकि संघ के मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत ने 2018 में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में यह कहा था कि ‘संविधान देश की सामूहिक सहमति है और इसका पालन करना सबका कर्तव्य है।’
लेकिन होसबाले जैसे वरिष्ठ पदाधिकारी द्वारा इस प्रकार के विचार रखना यह दर्शाता है कि संघ के भीतर अब भी संविधान की मूल प्रस्तावना को लेकर स्वीकार्यता अधूरी है। ‘धर्मनिरपेक्षता’ भारतीय संविधान का एक ऐसा स्तंभ है, जो यह सुनिश्चित करता है कि राज्य किसी एक धर्म को प्रोत्साहन नहीं देगा। यह बहुधर्मीय भारत की नींव है। दूसरी ओर ‘समाजवाद’ यह संकेत करता है कि संसाधनों का वितरण न्यायपूर्ण और समानता आधारित होगा। इन दोनों शब्दों की व्याख्या में भले ही समय के साथ बदलाव हुआ हो, लेकिन इनके महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता। यह बात सही है कि 1950 में जब संविधान लागू हुआ, तब प्रस्तावना में ये दोनों शब्द नहीं थे। लेकिन उस समय भी संविधान की आत्मा इन मूल्यों से अछूती नहीं थी। अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 15 (धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव का निषेध), अनुच्छेद 25 (धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार) और अनुच्छेद 39 (राज्य की नीतियों के निदेशक तत्व) सभी इस बात की पुष्टि करते हैं कि संविधानकारों की दृष्टि धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी मूल्यों से जुड़ी थी। 1976 के 42वें संशोधन को आपातकाल के संदर्भ में देखा जाता है। उस समय इंदिरा गांधी सरकार द्वारा अनेक संवैधानिक संशोधन किए गए थे, जिनमें प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों का जुड़ना भी शामिल था। इन शब्दों को जोड़ने की आवश्यकता क्यों पड़ी? सम्भवतः यह समय की मांग थी। आपातकाल भले ही लोकतंत्र पर एक धब्बा माना गया हो, लेकिन उससे उपजे अनेक संवैधानिक सुधार स्थायी रूप से संविधान का हिस्सा बन गए।
बीजेपी और आरएसएस ने समय-समय पर संविधान की समीक्षा की मांग की है। 1993 में भाजपा के तत्काालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष डाॅ. मुरली मनोहर जोशी ने इसकी आवश्यकता पर बल दिया था। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने भी संविधान समीक्षा आयोग गठित किया था। हालांकि इस आयोग की सिफारिशें कभी पूरी तरह से लागू नहीं हुईं, लेकिन यह स्पष्ट करता है कि विचारधारा के स्तर पर संघ परिवार संविधान की कुछ धाराओं को लेकर असहज रहा है।
कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने हालिया बयान में आरोप लगाया है कि आरएसएस को भारत का संविधान इसलिए स्वीकार नहीं क्योंकि यह ‘मनुस्मृति से प्रेरित नहीं है।’ यह कथन कठोर प्रतीत होता है लेकिन यह बताता है कि भारत में संविधान पर बहस केवल कानूनी या प्रशासनिक नहीं है, यह वैचारिक टकराव की भी उपज है।
प्रस्तावना में संशोधन करना एक जटिल संवैधानिक प्रक्रिया है। इसे संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से पारित करना होता है और यदि यह संविधान की मूल संरचना को प्रभावित करता है, तो यह न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ सकता है। ‘केशवानंद भारती केस’ (1973) में सुप्रीम कोर्ट ने ‘मूल संरचना सिद्धांत’ प्रतिपादित किया था, जिसमें संविधान की मूल भावना को बदला नहीं जा सकता।
अगर सरकार प्रस्तावना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को हटाने की पहल करती है, तो यह प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचेगा और एक संवैधानिक संकट की स्थिति बन सकती है। वरिष्ठ पत्रकार रशीद
किदवई भी मानते हैं कि यह मुद्दा यदि बढ़ता है, तो सुप्रीम कोर्ट और संघ के बीच टकराव सम्भव है। प्रोफेसर राजीव भार्गव जैसे विद्वान मानते हैं कि भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने के लिए सबसे पहले प्रस्तावना से इन दोनों शब्दों को हटाना होगा। यह कथन संघ की विचारधारा के साथ मेल खाता है, लेकिन क्या यह व्यावहारिक है? वरिष्ठ पत्रकार अदिति फडनीस कहती हैं कि संघ और बीजेपी पहले धीमे स्वर में ऐसी बातें कहते थे, अब जोर से बोलने लगे हैं। यानी विचार वही हैं, बस भाषा बदल गई है।
एक विडम्बना यह भी है कि आज की सरकार जो तमाम योजनाएं चला रही है, जनधन, उज्ज्वला, फूड सब्सिडी, मुफ्त आवास और चिकित्सा सुविधा, वे समाजवादी सोच की उपज हैं। फिर ‘समाजवाद’ शब्द से इतनी असहजता क्यों? क्या यह केवल वैचारिक प्रतीकवाद है या वास्तविक राजनीतिक एजेंडा?
यह बहस आने वाले समय में और तीव्र होगी। भारत का संविधान बहुस्तरीय है, कभी-कभी जटिल भी। लेकिन इसकी ताकत इसकी लचीलापन नहीं, इसकी स्थिरता और समावेशिता है। संविधान की आत्मा को केवल राजनीतिक लाभ के लिए बदला नहीं जा सकता। कांग्रेस ने स्पष्ट कर दिया है कि वह किसी भी सूरत में संविधान को बदलने की कोशिशों को सफल नहीं होने देगी। लेकिन यदि इस बहस को जनता के बीच ईमानदारी से नहीं रखा गया, तो यह धीरे-धीरे लोगों के मन में भ्रम पैदा कर सकती है। भारत जैसे लोकतंत्र में सबसे बड़ा खतरा यह नहीं होता कि संविधान बदला जाए, बल्कि यह होता है कि लोग उसकी भावना को समझना ही बंद कर दें।
संविधान की प्रस्तावना कोई औपचारिक प्रस्ताव नहीं, बल्कि उस स्वप्न का दर्पण है जिसे भारत के निर्माताओं ने देखा था, एक ऐसा राष्ट्र जहां सभी को समान अवसर, समान अधिकार और समान सम्मान प्राप्त हो। यदि ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ को हटाया गया, तो यह केवल शब्दों का परिवर्तन नहीं होगा, यह भारतीय गणराज्य की आत्मा में एक दरार होगी।