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राजनीतिक मजबूरी या रणनीति?

पिछले दो लोकसभा चुनाव यानी 2014 और 2019 में अकेले दम पर देश की सत्ता में काबिज हुई भाजपा को आम चुनाव 2024 में पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया लेकिन नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू के अलावा एनडीए के अन्य सहयोगी का साथ मिला और फिर से नरेंद्र मोदी पीएम बने। तब कहा जा रहा था कि अब मोदी को संसद में कोई भी बिल पास कराने के लिए चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। खासकर उन बिलों पर जो अल्पसंख्यकों से सीधे जुड़े हों क्योंकि नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू दोनों ही

नेताओं को मुस्लिएम वोटरों का भारी समर्थन मिलता रहा है। इसी आधार पर विपक्ष को लग रहा था कि वक्फ जैसे संवेदनशील मसले पर ये पीएम मोदी और भाजपा का साथ नहीं देंगे। मगर इसी सप्ताह संसद से पारित हुआ वक्फ बोर्ड (संशोधन) बिल पर इन दोनों दलों ने सबको चैंकाते हुए न सिर्फ बीजेपी का साथ दिया, बल्कि बिल के समर्थन में ऐसी- ऐसी बातें कहीं जो विपक्ष को चुभने वाली थीं। ऐसे में सड़क से लेकर संसद तक सवाल उठ रहे हैं कि क्या दोनों पार्टियों को मुस्लिएम वोट खिसकने का डर खत्म हो गया या फिर कहानी कुछ और है? यह राजनीतिक मजबूरी या रणनीति?

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू ने इस बिल का समर्थन क्यों किया, इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। बिहार में मुस्लिम आबादी करीब 17 तो आंध्र प्रदेश में 9 फीसदी है। दोनों राज्यों में मुस्लिम वोट चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं। वक्फ बिल के विरोध में मुस्लिम संगठनों ने नीतीश और नायडू को निशाने पर लिया था। आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड ने उनसे बिल का विरोध करने की अपील की थी और बिहार में नीतीश की इफ्तार पार्टियों का बहिष्कार भी हुआ था। फिर भी दोनों नेताओं ने बिल का समर्थन किया जिससे लगता है कि वे इस जोखिम को उठाने को तैयार हैं। शायद नीतीश और नायडू को भरोसा है कि मुस्लिम वोटों का
ध्रुवीकरण उनके खिलाफ उतना प्रभावी नहीं होगा। बिहार में नीतीश का मुकाबला तेजस्वी यादव की आरजेडी से है जो मुस्लिम -यादव (एमवाई) समीकरण पर निर्भर है। नीतीश शायद मानते हैं कि उनका विकास का ट्रैक रिकाॅर्ड और बीजेपी के साथ गठबंधन उन्हें गैर-मुस्लिम वोटों का बड़ा हिस्सा दिलाएगा जो मुस्लिम वोटों के नुकसान की भरपाई कर देगा। नायडू के लिए भी आंध्र में वाईएसआरसीपी और कांग्रेस के खिलाफ बीजेपी का साथ उनकी स्थिति को मजबूत करता है।

जहां तक सवाल है मुस्लिम वोटों के खिसकने के डर का तो नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू दोनों ने शायद यह माना कि मुस्लिम वोटों का खिसकना उतना बड़ा खतरा नहीं है जितना पहले माना जाता था। नीतीश ने मुस्लिमों के लिए कई कल्याणकारी योजनाएं चलाई हैं, जैसे मदरसों का आधुनिकीकरण, अल्पसंख्यक कल्याण कार्यक्रम। इसी तरह नायडू ने आंध्र प्रदेश में मुस्लिम समुदाय के लिए स्काॅलरशिप और अन्य योजनाओं को बढ़ावा दिया है। इन्हें लगता होगा कि ये कदम उनके मुस्लिम वोट बैंक को बनाए रखने में मदद करेंगे। भले ही वक्फ बिल पर उनका रुख विवादास्पद हो। दूसरा वक्फ बोर्ड के फैसलों से तमाम मुस्लिम ही खफा नजर आ रहे हैं जो नुकसान के बजाय फायदेमंद हो सकता है।
रहा सवाल राजनीतिक मजबूरी और रणनीति का तो बिल पेश होने से चंद घंटे पहले तक दोनों नेताओं की ओर से कुछ भी साफ नहीं था। फिर अचानक कहा जाने लगा कि जेडीयू ने इस बिल में कई सुझाव दिए हैं जो मुसलमानों के लिए जरूरी हैं। सरकार ने उन सभी को मान लिया है। जेडीयू का सबसे बड़ा सुझाव था कि इस कानून को पीछे से लागू न किया जाए, सरकार ने उसे मान लिया। यानी कानून जब पास होगा, तभी से इसे लागू माना जाएगा। यह संदेश मुसलमानों तक भी भेजा गया कि जेडीयू और टीडीपी ने मुसलमानों के हक में बिल में बदलाव करवा दिए हैं।

गौरतलब है कि लोकसभा में जेडीयू 12 और टीडीपी के 16 सांसदों के समर्थन से ही केंद्र में एनडीए की सरकार चल रही है। ऐसे में वक्फ जैसे महत्वपूर्ण बिल पर गठबंधन से अलग रुख अपनाना नीतीश और नायडू के लिए जोखिम भरा हो सकता था। गठबंधन धर्म निभाना उनकी प्राथमिकता रही क्योंकि इससे उनकी सौदेबाजी की ताकत बनी रहेगी। नीतीश कुमार बिहार में लम्बे समय से सुशासन और विकास के एजेंडे पर चलते रहे हैं। मुस्लिम वोट उनके लिए अहम हैं, लेकिन बीजेपी के साथ गठबंधन उनकी सरकार की स्थिरता का आधार है। वक्फ बिल का समर्थन कर उन्होंने बीजेपी के साथ वफादारी दिखाई, जिससे बिहार में उनकी सरकार को कोई खतरा न हो। वहीं चंद्रबाबू नायडू के लिए आंध्र प्रदेश में विकास और केंद्र से आर्थिक मदद प्राथमिकता है। टीडीपी ने बिल का समर्थन करते हुए कहा कि वे मुस्लिम समुदाय के हितों के लिए प्रतिबद्ध हैं, लेकिन केंद्र के साथ सहयोग उनके राज्य के लिए फायदेमंद है।

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