मुठभेड़ में अद्भुत कला का प्रदर्शन! शरीर पर गोलियों के कई निशान लेकिन टी शर्ट पर एक भी निशान नहीं!! जहां एक ओर लगभग एक वर्ष के योगी कार्यकाल में 58 दुर्दान्त अपराधियों को मार गिराने का दावा किया जा रहा है वहीं दूसरी ओर एक समाजसेवी संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर मुठभेड़ों पर सवालिया निशान लगा दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी मामले को संज्ञान में लिया और राज्य सरकार से जवाब तलब किया है।
गैर सरकारी संगठन पीयूसीएल का आरोप है कि मौजूदा योगी सरकार के अब तक के कार्यकाल में एक हजार से ज्यादा मुठभेड़ की घटनाएं हुई हैं। इससे पूर्व मानवाधिकार आयोग भी राज्य सरकार को नोटिस जारी करके इस सम्बन्ध में जवाब मांग चुका है। गैर सरकारी संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में अनुरोध किया है कि मुठभेड़ की धटनाओं की जांच सीबीआई या एसआईटी से करवायी जाए। वैसे तो सुप्रीम कोर्ट में अब इस मामले को लेकर तीन सप्ताह बाद सुनवायी की जायेगी लेकिन गैर सरकारी संगठन द्वारा दायर की गयी याचिका और उसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा संज्ञान में लिया जाना इस बात के स्पष्ट संकेत दे रहा है कि आने वाले दिनों में मुठभेड़ को लेकर सरकार को जवाब देना कठिन हो जायेगा।
गैर सरकारी संगठन पीयूसीएल समेत अन्य सामाजिक संगठन भी इस बात को मान रहे हैं कि बीते लगभग एक वर्ष के दौरान यूपी पुलिस पूरी तरह से निरंकुश हो चुकी है। कथित फर्जी मुठभेड़ की घटनाएं तो एक अहम मुद्दा हैं ही साथ ही यूपी पुलिस का अमानवीय रवैया भी अब किसी से छिपा नहीं रह गया है। भुक्तभोगियों के साथ अभद्र व्यवहार उसकी दिनचर्या में शामिल हो गया है।
यूपी पुलिस की अमानवीय रवैये जुड़ा एक ऐसा ही मामला आजमगढ़ से जुड़ा हुआ है। पिछले दिनों आजमगढ़ पुलिस ने मुठभेड़ के दौरान मारे गए राकेश पासी के परिजनों को यह कहकर लाश देने से मना कर दिया कि ‘लाश देने का कोई कानून नहीं है’। इतना ही नहीं एफआईआर और पोस्टमार्टम रिपोर्ट की काॅपी मांगे जाने पर कहा जाता है कि रिपोर्ट एक महीने बाद मिलेगी। सवाल किए जाने पर अपशब्दों से तो नवाजा ही जाता है साथ ही रिपोर्ट मांगने वालों को भी फर्जी मुठभेड़ में मारने की धमकी दी जाती है। सर्वविदित है कि मरने वाला चाहें कोई भी क्यों न हो, मुठभेड़ के बात मृत व्यक्ति की लाश उसके परिजनों को सौंपी जाती है लेकिन यूपी पुलिस इस कानून को नहीं मानती। समाजसेवी संगठन इस मुठभेड़ पर भी उंगलियां उठा रहे हैं। मारा गया राकेश पासी प्रधानी का चुनाव भी लड़ चुका है।

राकेश पासी अत्यंत निर्धन परिवार से ताल्लुक रखता था। वह और उसका परिवार एक झोपड़ी में गुजर-बसर करता था। परिवार के राकेश पासी की इकलौता बचा था जिसके सहारे परिवार का भरण-पोषण होता था। राकेश पासी के पिता और उसके एक अन्य भाई दिनेश पासी की पहले ही मृत्यु हो चुकी है। राकेश को आजमगढ़ पुलिस ने 12 जून को मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया है।

रिहाई मंच का आरोप है कि योगी आदित्यनाथ द्वारा ‘ठांेक देने’ के आदेश के बाद फर्जी मुठभेड़ों के नाम पर वंचित समाज के लोग मारे जा रहे हैं। चाहे वो राम जी पासी हों या फिर राकेश पासी। दोंनों ही राजनीतिक रुप से सक्रिय थे। रामजी पासी जहां 600 मतों से बीडीसी थे तो वहीं राकेश पासी पिछले प्रधानी चुनाव में 360 वोट पाया था। आरोप है कि इन घटनाओं से साफ जाहिर है कि योगी सरकार अपने राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाकर आगामी चुनाव का रास्ता साफ कर रही है। आजमगढ़ में फर्जी मुठभेड़ों में मारे गए सभी लोग चाहे छन्नू सोनकर, जयहिंद यादव, राम जी पासी, मुकेश राजभर, मोहन पासी और अब राकेश पासी सभी के सभी पिछड़े और दलित समाज से हैं।
राकेश पासी की पुलिसिया मुठभेड़ कहानी में कितना सच और कितना झूठ छिपा हुआ है इसका खुलासा तो किसी जांच एजेंसी से जांच के उपरांत ही हो सकता है लेकिन जहां तक यूपी पुलिस की अमानवीयता का प्रश्न है तो यूपी पुलिस पिछले एक वर्ष से कुछ ज्यादा ही निरंकुश हो चली है। उसके निशाने पर भाजपा विरोधी राजनीतिक दलों के लोग तो हैं ही साथ ही सरकार की सच्चाई बयां करने वाले मीडिया कर्मी भी उसके निशाने पर हैं