नौकर उपायुक्त और नौकर पुलिस अधीक्षक (एसपी)!
ग्रामसभा ने गांव में ‘…’ कार्य कराने का निर्णय लिया है। इसलिए यह ग्रामसभा आपको इस काम को पूरा करने का आदेश देती है।
धन्यवाद।
एसी भारत सरकार कुटुंब परिवार रूढ़िवादी एवं पारंपरिक ग्रामसभा …।
यह पत्थरगड़ी करने वाली ग्रामसभा के एक पत्र का मजमून है, जो आदिवासी अपने डिप्टी कमिश्नर और एसपी को लिखते हैं। वह सरकारी अधिकारियों को इसी तरह से पत्र लिखते हैं, क्योंकि इन ग्रामसभाओं के आदिवासी अधिकारियों को अपना नौकर ही समझते हैं। यहां इनकी बात इसलिए क्योंकि पिछले कुछ समय से झारखण्ड और छतीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल क्षेत्रों में पत्थरगड़ी घटनाएं चर्चा में हैं। आदिवासी क्षेत्रों की घटनाएं दिल्ली पहुंचते-पहुंचते खबरों के कई रंग-रूप में बदलती हैं। यहां भी यहीं हुआ है। पत्थरगड़ी की घटनाओं पर राष्ट्रीय मीडिया में अलग-अलग ढंग से खबरें छपी। किसी ने इसे नक्सलियों का काम बताया तो किसी ने धर्मांतरण करने वाली संस्थाओं का रूप दिया। किसी ने इसे सरकार के समानांतर व्यवस्था खड़ी करने की बात कही। लेकिन इसका मूल आदिवासियों की परंपरा में है। जिसे अब वह अपने अधिकार लेने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।
पत्थरगड़ी करने वाले या कहें खुद को स्वायत्त घोषित करने वाले ज्यादातर गांव ऐसे हैं जो गरीबी का दंश झेल रहे हैं। आजादी के सत्तर साल बाद भी आदिवासियों के ये गांव बुनियादी सुविधाओं से पूरी तरह वंचित हैं। जबकि भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची 10 राज्यों के आदिवासी इलाकों में लागू है। यह अनुसूची स्थानीय समुदायों का लघु वन उत्पाद, जल और खनिजों पर अधिकार सुनिश्चित करती है। फिर पेसा कानून 1996 में आया। इसमें भी आदिवासियों को कई प्रकार के अधिकार प्राप्त हैं। फिर भी वास्तव में उनके हाथ कुछ नहीं है। सरकार उन्हें उनके जंगलों से उजाड़ रही है। उनकी संस्कृति और परंपराओं पर चोट किया जा रहा है। जिसके बाद आदिवासी अपनी जड़ों को बचाने के लिए प्रतिक्रिया करने को मजबूर हो गए। हालांकि इन्होंने नक्सलियों की तरह हथियार तो नहीं उठाए, पर अपनी प्रथा (पत्थरगड़ी) को हथियार बनाया है। यह काम झारखण्ड, छत्तीसगढ़, राजस्थान के आदिवासी गांवों में है। मगर सबसे ज्यादा छत्तीसगढ़ और झारखण्ड के उन इलाकों में है, जहां नक्सलियों का असर कम हुआ है।
झारखंड में इन दिनों आदिवासियों और प्रशासन के बीच शीत युद्ध जैसा माहौल है। एक तरफ गांव स्वशासन की घोषणा करते जा रहे हैं, दूसरी तरफ सरकार इसे गैरकानूनी और सख्ती से कुचलने की बात कह रही है। इस तनावपूर्ण माहौल में किसी भी दिन सरकार और आदिवासियों के बीच संघर्ष छिड़ सकता है। अभी सरकार और आदिवासियों के बीच छिटपुट संघर्ष शुरू भी हो गया है।
एक आदिवासी कार्यकर्ता का कहना है कि आदिवासियों और प्रशासन के बीच नासमझी की मुख्य वजह है पुलिस प्रशासन द्वारा भारतीय संविधान में उल्लेखित 5वीं अनुसूची के तहत आदिवासियों के अधिकारों को न समझना। उन्होंने बताया कि अनुच्छेद 244 (1) और (2) में पूर्ण स्वशासन और नियंत्रण की शक्ति दी गई है। उनके अनुसार, झारखंड के 13 अनुसूचित जिलों में राज्यपाल को शासन करना है, लेकिन आजादी के सात दशक बाद भी किसी राज्यपाल ने इन क्षेत्रों के लिए अलग से कोई कानून नहीं बनाया। इसका परिणाम यह हुआ कि गैर अनुसूचित (अर्थात सामान्य) जिले के नियम कानून ही आज तक आदिवासियों के ऊपर लादे जाते रहे हैं। जिससे आदिवासियों का अस्तित्व संकट में है। अपने अस्तित्व को बचाने के लिए पत्थरगड़ी करना, एक तरह से उनकी मजबूरी है। झारखंड के पश्चिम सिंहभूम और खूंटी जिले में करीब 300 पत्थरगड़ी की घटनाएं हुई हैं। उसी प्रकार छतीसगढ़ में भी 250 से ज्यादा घटनाएं हुई है।
खूंटी जिले के अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के स्थानीय अध्यक्ष मुकेश बरुआ का कहना है कि इसको सही या गलत साबित करने के लिए सरकार और सिविल सोसाइटी कई तरह की वजह बता रहे हैं। सरकार कह रही है कि आदिवासी अफीम की खेती करते हैं और पुलिस कार्रवाई नहीं करे, इस डर से ये लोग संविधान से मिले कानूनी सुरक्षा का सहारा ले रहे हैं। वहीं सिविल सोसाइटी का कहना है कि सरकार को राज्य के कुछ इलाकों में सोना होने की बात पता चल गई है इसलिए सरकार जमीन लेने के लिए पुरजोर प्रयास कर रही है। सरकार अब तक भूमि बैंक के नाम पर 20 लाख 81 हजार एकड़ से ज्यादा जमीन ले चुकी है। जानकारों के मुताबिक इस कारण भी लोगों में असुरक्षा की भावना घर कर रही है। स्वशासन की मांग जोर पकड़ रही है।
‘अराजक तत्व मिस यूज करते हैं’
पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं भाजपा सांसद करिया मुंडा से बातचीत
क्या पत्थरगड़ी सरकार के लिए समस्या बनती जा रही है?
पत्थरगड़ी कोई समस्या नहीं है। यह बात सही है कि पत्थर गाड़ने की प्रथा हम आदिवासियों में रही है। मगर आजकल कुछ अराजक तत्व हमारी इस प्रथा का मिसयूज कर रहे हैं या कहें इसे बदनाम कर रहे हैं। आदिवासी लोगों के जहां तक विकास की बात है तो भाजपा सरकार ने आदिवासियों के विकास के लिए कई योजनाएं बनाई हैं। उन योजनाओं पर काम भी हो रहा है।
सत्तर सालों से आदिवासियों का विकास क्यों नहीं हुआ?
इसके लिए जिम्मेवार कांग्रेस की सरकार है। सत्तर सालों में आधिकतर साल कांग्रेस सत्ता में रही। उन्होंने आदिवासियों के लिए कुछ नहीं किया। यहां तक कि उन्होंने हम आदिवासियों को इंसान भी नहीं समझा। भाजपा सरकार ने आदिवासी उत्थान के लिए कई काम किए हैं। आदिवासी गांवों ही नहीं हरेक परिवार के लिए योजना बनाई गई है।
आदिवासियों की जमीन कंपनियों को दी जा रही है। पत्थरगड़ी जंगल और जमीन बचाने के लिए तो नहीं हो रही है?
आदिवासियों की जमीन कोई नहीं छीन रहा है। आदिवासी हितां, उनकी संस्कøति, परंपराओं और जंगल बचाने के लिए सख्त कानून बने हुए हैं। उन कानूनों के रहते हुए आदिवासियों को कोई उजाड़ नहीं सकता। मैंने कहा न पत्थरगड़ी के नाम पर कुछ लोग बहकावे में गलत काम रहे हैं।
सरकार ग्रामसभा के माध्यम से आदिवासयिं के लिए विकास कार्य क्यों नहीं कराती?
ग्रामस्तर का विकास पंचायत के माध्यम से ही होता है। आप जिस ग्रामसभा की बात कर रहे हैं, उस ग्रामसभा के सदस्य ग्राम पंचायत में भी प्रतिनिधि हैं। चूंकि पंचायत संवैधानिक व्यवस्था है, इसलिए पंचायत का काम अन्य संस्था को नहीं दे सकते। फिर पंचायत हो या ग्रामसभा, दोनों में गांव के आदिवासी ही हैं। क्या किसी संस्था भर से एक आदमी का कøत्य बदल जाता है।
‘पथरगड़ी एक परंपरा’
दैनिक हिंदुस्तान रांची के न्यूज एडिटर कमलेश से बातचीत
पत्थरगड़ी आंदोलन है या अधिकार?
पत्थरगड़ी आदिवासियों की एक प्रथा है। यह प्रथा कबिलाई समय से चली आ रही है। कबिलाई जंगल में रहते थे। वे अपने कबीले के चारों तरफ पत्थर गाड़ देते थे। लेकिन आज का पत्थरगड़ी नए किस्म का है। जिसमें अपने गांव को ग्रामसभा के जरिए सुविधा संपन्न बनाने की इच्छा शक्ति है। सरकारों ने 70 साल में आदिवासियों के लिए कुछ नहीं किया। आज भी आदिवासी उस पानी को पीते हैं, जिससे हम लोग हाथ-मुंह भी नहीं धोते। पढ़ाई के लिए स्कूल नहीं है। बुखार तक से आदिवासियों की मौत हो जा रही है। जब सरकार ने इनके लिए कुछ नहीं किया तो आदिवासियों ने अपनी पुरानी परंपराओं को पुनर्जीवित किया और अपने गांव में पत्थरगड़ी कर व्यवस्था को बताया कि यह गांव हमारा है। इसके सारे फैसले ग्रामसभा लेगी। कोई दूसरा हमारे बीच नहीं आ सकता।
बिना अनुमति गांव में बाहरी लोगों के प्रवेश पर पाबंदी। क्या यह शासन के समानांतर व्यवस्था नहीं है?
क्या आप अपने घर में बाहरी लोगों को बिना अनुमति प्रवेश करने देते हैं। आदिवासी पूरे गांव को अपना घर मानता है। जंगल उसका घर है। आदिवासियों को जानने और समझने के लिए उनके करीब आना होगा। दूर से उसे नहीं समझा जा सकता, क्योंकि वह अलग हैं। उनका मानना है कि इस देश का मूल नागरिक आदिवासी है। इसलिए आदिवासी राजा और अन्य लोग नौकर हैं। गुजरात के कटसवान इलाके के राजा कुंवर केसरी थे। देहांत से पहले इनका नेतृत्व वही करते थे। उनका बेटा राजेंद्र सिंह केसरी अब नेतृत्व कर रहे हैं। आज भी साल में एक बार पत्थरगड़ी ग्राम सभा के लोग गुजरात के करसवान में जुटते हैं। वहीं से इन्हें दिशा-निर्देश मिलते हैं। पहले झारखंड में 35 फीसदी आदिवासी थे आज उनकी आबादी 26 फीसदी हो गई है। इसलिए वह अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं। सरकार जंगल को उनसे छीन न ले, इसलिए उन्होंने ऐसी व्यवस्था बनाई है।
पहली पत्थरगड़ी 1998 में राजस्थान के डुंगरपुर जिले के तलैया गांव में हुई थी। उसके बाद यह सिलसिला शांत हो गया। दो साल से अचानक यह घटना सुर्खियों में है, क्यों?
पहले तो मैं आपके तथ्य को सही कर दूं। पहली पत्थरगड़ी 1998 में नहीं हुई थी। मैंने बोला यह आदिवासियों की पुरानी प्रथा है। जो कबिलाई समय से चल रही है। 1998 में यह एक नए रूप में आई। वह पेसा कानून से आदिवासियों को मिले अधिकार को प्राप्त करने के लिए थी। जहां तक ऐसी घटना के विस्तार की बात है, तो उसका कारण यह है कि आदिवासी इलाकों में नक्सल का प्रभाव रहा है। नक्सल अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों के आदिवासियों को समझाने के कामयाब थे कि आंदोलन के बाद सब ठीक हो जाएगा। सारे अधिकार आपके हाथ में आ जाएंगे। इसलिए उस दौरान यह घटनाएं नहीं होती थी। लेकिन जब नक्सल का प्रभाव कम हुआ तो उन इलाकों में आदिवासी पत्थरगड़ी कर अपना अधिकार लेने लगे। मुझे लगता है, यदि कोई अन्य संगठन फिर से इन आदिवासियों को उनके अधिकार दिलाने का दावा करेगा तो पत्थरगड़ी स्वतः कम हो जाएगी। यहां तक कि यदि सरकार ही इन आदिवासियों का विकास उनके ग्रामसभा अनुरूप करेगी तो पत्थरगड़ी खत्म हो जाएगी।
पत्थरगड़ी के नाम पर कई गलत कार्य भी हो रहे हैं?
पत्थरगड़ी का नेतृत्व करने वालों के पास विचार नहीं है। विचार की कमी के कारण नेतृत्व करने वाले इस कार्य को संभाल नहीं पा रहे हैं। यदि इस काम को सही ढंग से नहीं संभाला गया तो भविष्य में अराजक हो सकता है।