जातीय जनगणना को लेकर भारत की राजनीति में हाल ही में बड़ा बदलाव देखने को मिला है। 30 अप्रैल 2025 को केंद्र सरकार ने आगामी जनगणना में जाति आधारित गणना को शामिल करने का निर्णय लिया, जिससे दशकों से चली आ रही बहस को नया मोड़ मिला है। भारत में अंतिम बार पूर्ण जातीय जनगणना 1931 में ब्रिटिश शासन के दौरान हुई थी। उस समय देश में कुल 4,147 जातियों की गणना की गई थी और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की आबादी 52 प्रतिशत थी। 1941 में भी जाति आधारित आंकड़े एकत्र किए गए, लेकिन इन्हें कभी प्रकाशित नहीं किया गया। 1951 के बाद से केवल अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) की आबादी के आंकड़े ही एकत्र और प्रकाशित किए गए। आजादी के बाद से कांग्रेस ने जातीय जनगणना से दूरी बनाए रखी।
पंडित जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में जातियों की गिनती नहीं कराई गई। हालांकि 2011 में यूपीए सरकार के दौरान सामाजिक-आर्थिक और जाति आधारित आंकड़े (एसईसीसी) एकत्र किए गए, लेकिन ये आंकड़े भी सार्वजनिक नहीं किए गए। 2010-11 में भाजपा ने जाति जनगणना का समर्थन किया था। हालांकि सत्ता में आने के बाद पार्टी का रुख बदलता दिखा। 2018 में तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने घोषणा की कि 2021 की जनगणना में ओबीसी आंकड़े एकत्र किए जाएंगे, लेकिन बाद में केंद्र सरकार ने स्पष्ट किया कि जनगणना में केवल एससी और एसटी आंकड़े ही एकत्र किए जाएंगे।
केंद्र सरकार के हालिया फैसले को विपक्षी दलों की जीत के रूप में देखा जा रहा है। कांग्रेस, आरजेडी, सपा, और अन्य दलों ने इसे सामाजिक न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण कदम बताया है। वहीं, भाजपा ने इसे सामाजिक कल्याण के लिए आवश्यक बताया है, हालांकि पार्टी के भीतर इस मुद्दे पर मतभेद भी रहे हैं। जातीय जनगणना का मुद्दा अब राजनीतिक विमर्श के केंद्र में है। यह निर्णय सामाजिक न्याय, आरक्षण और संसाधनों के वितरण जैसे मुद्दों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है। आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि विभिन्न राजनीतिक दल इस मुद्दे को कैसे आगे बढ़ाते हैं और इसका भारतीय राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ता है।