- वृंदा यादव
‘लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती और कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती’ कविता की इन्हीं पंक्तियों को चरितार्थ कर दिखाया है पटना के अरुण कुमार ने। जिन्होंने अपनी पुस्तक ‘वीरा की शपथ’ को बिहार की राजधानी पटना से देश की राजधानी दिल्ली तक पहुंचाया है। अगर आप भी दिल्ली में रहते हैं तो इन्हें और इनकी पत्नी को आते-जाते मेट्रो स्टेशन के बाहर, सिनेमाघर के सामने या स्कूल-कॉलेज आदि जैसे संस्थानों के बाहर अपनी किताबों के साथ एक पोस्टर लिए खड़े देख सकते हैं, जिस पर लिखा है ‘‘मैं नया लेखक हूं, दिल्ली से सपोर्ट चाहिए’’। इस तरह वे अपनी किताबों को बेचने और अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचने का प्रयास कर रहे हैं। अपनी इस पहली पुस्तक के साथ अरुण कुमार ने साहित्य जगत में शुरुआती कदम रखा है। जिसमें उन्होंने एक रोमांचक, काल्पनिक और पौराणिक वीर गाथा को सभी रसों के संगम के साथ इस पुस्तक में उकेरा है।
लेकिन साहित्य जगत में नया होने के कारण इस क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनाने के लिए इन्हें कई संघर्षों का सामना करना पड़ रहा है। किताब को पूरा लिख लेने के बाद इनके सामने सबसे पहली समस्या यह थी कि किताब को प्रकाशित करवाने के लिए इसे प्रिंट कहां से कराया जाए। बातचीत के दौरान अरुण ने हमें बताया कि शुरुआत में इन्होंने कई बड़े पब्लिकेशन हाउस से अपनी किताब प्रकाशित करवाने की कोशिशें की लेकिन अभी इस क्षेत्र में नया होने के कारण उन्हें इस कार्य में असफलता ही प्राप्त हुई। जिससे उन्हें दुःख तो पहुंचा लेकिन इस बात से हारकर पीछे हट जाने के बदले इन्होंने किसी निजी संस्था से खुद के पैसों से अपनी पुस्तक को प्रकाशित कराया और फिर अपनी रचना को दुनिया के सामने लाने के प्रयास में जुट गए जो सफर कब तक चलने वाला है इसकी जानकारी उन्हें खुद भी नहीं है। वह बताते हैं कि इस दौरान हर दिन उन्हें ऐसा लगता है कि अब उन्हें इस सफर को छोड़ कर कोई दूसरा रास्ता अपना लेना चाहिए, क्योंकि कई बार ऐसा होता है कि सड़कों पर पूरा दिन खड़े रहने के बावजूद एक किताब भी नहीं बिकती। लेकिन वहीं कई बार ऐसा भी होता है कि एक दिन में 60 से ज्यादा किताबें भी बिक जाती हैं। इतनी कठिनाइयों के बाद भी सफर में डटे रहने का ही परिणाम है कि अब तक यह अपनी 10 हजार से भी ज्यादा प्रति को बेच चुके हैं। वह कहते हैं कि उनका लक्ष्य तो दिसंबर तक 1 लाख किताबें बेचने का था जो फिलहाल पूरा होता हुआ नजर नहीं आ रहा है। साथ ही उन्होंने इस बात की भी जानकारी दी कि वह किताब के दूसरे भाग पर भी कार्य कर रहे हैं जिसका लगभग करीब 70 प्रतिशत कार्य पूरा हो चुका है।
सफर की शुरुआत
अरुण कुमार बताते हैं कि अपने सफर की शुरुआत उन्होंने आज से ग्यारह साल पहले वर्ष 2011 में की थी। शुरुआत से ही इन्हें फिल्मों का बहुत शौक था इसलिए 2011 में अभिनेता बनने की चाह में वह पटना से मुंबई चले गए। वहां इन्होंने पूरे आठ साल तक एक अभिनेता बनने के लिए कड़ी मेहनत की और अपनी किस्मत को आजमाया। लेकिन वक्त के सामने उनकी हार हुई और साल 2018 में अपने टूटे हुए सपने के साथ वह वापस पटना आ गए। जहां उनके एक मित्र ने उन्हें सलाह दी कि उन्हें सिविल सर्विसेज (यूपीएससी) की तैयारी करनी चाहिए। मन न होते हुए भी अपने दोस्त की सलाह पर तैयारी के लिए वह अपनी पत्नी संग दिल्ली चले आए जहां उन्होंने एक बार फिर अपनी किस्मत को आजमाना शुरू किया।
लेकिन कुदरत को शायद कुछ और ही मंजूर था क्योंकि सिविल्स की तैयारी के दौरान जब उन्होंने अनुच्छेद लिखने का प्रयास किया तो उन्हें महसूस हुआ कि उनकी कलम से कोई और ही कला निकलकर सामने आ रही है। कई बार उन्होंने इस चीज को नजरअंदाज कर दिया लेकिन जब लगातार ऐसा होता रहा तो उन्हें लगा कि किस्मत ने अभी हराया नहीं है बल्कि एक लेखक बना दिया है। अपने अंदर के इस कलाकार के बारे में जानने के बाद किताब को लिखना शुरू किया जिसे पूरा करने में तीन वर्ष का समय लगा।
अरुण ने बताया कि इस सफर में उनके परिवार के अलावा जनता ने भी पूरा साथ दिया। उनकी पत्नी दीपिका राठी जो हर कदम पर उनके साथ खड़ी रहीं। किताबों को बेचने के लिए जितने देर वे खड़े रहते हैं दीपिका भी उनके साथ रहती हैं। उनकी पत्नी से बातचीत करने पर अरुण कुमार के संघर्ष के बारे में पता चला कि किस प्रकार अपने फिल्ड से हटकर जब उन्होंने साहित्य की ओर रुख किया तो वह कितना असमंजस का समय था की इस ओर जाना चाहिए या नहीं। लेकिन आखिर में अरुण ने लेखन को ही चुना और लिखना शुरू किया और अपने जीवन के ये तीन वर्ष पूरी तरह से लेखन को ही समर्पित कर दिए।
वर्तमान में नए लेखकों का संघर्ष
नए लेखकों की बात करें तो संसार में ऐसे कई अरुण कुमार मिल जाएंगे जो साहित्य की दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहें हैं या कई ऐसे लेखक भी होंगे जिन्होंने थक-हारकर कठिनाइयों के आगे घुटने टेक दिए होंगे और आगे किसी दूसरे रास्ते पर बढ़ गए होंगे। नए लेखकों को उनकी रचना दुनिया के सामने लाने का अवसर दिया जाना चाहिए, लेकिन यह सरल नहीं है क्योंकि आज के युग में अधिकतर काम पैसों के बल पर होते हैं और पैसों की कमी के कारण कई अच्छे लेखक और उनकी रचनाएं दुनिया के सामने नहीं आ पाती एवं रचना लेखक के अंदर सिमटकर ही खत्म हो जाती है। जिस प्रकार अरुण को अपनी किताबें प्रकाशित करवाने में दिक्कतों का सामना करना पड़ा उसी प्रकार हर नए लेखक को करना पड़ता है।
आर्थिक संघर्षों के अलावा भी एक नए लेखक को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिससे होकर हर एक लेखक को गुजरना पड़ता है।
साथ में नीतू टीटाण एवं प्रियंका यादव