‘ऑपरेशन सिंदूर’ की सैन्य सफलता के बाद भारत ने आंतरिक सुरक्षा पर कठोर रुख अपना कई सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स, कंटेंट क्रिएटर्स और सामान्य नागरिकों को आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम के तहत गिरफ्तार किया। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ ने यह साफ कर दिया है कि देश की सुरक्षा के लिए अब केवल बंदूकें नहीं, बल्कि बाइट्स और बिट्स से भी लड़ाई लड़ी जाती है। सोशल मीडिया अब सिर्फ जुड़ाव का माध्यम नहीं, बल्कि सुरक्षा के लिए जोखिम भी बन गया है। लेकिन यदि हम एक सदी पुराने कानून से इस नई लड़ाई को लड़ेंगे तो शायद हम सुरक्षा के साथ न्याय को भी खो देंगे। जरूरत है एक ऐसा कानून जो सुरक्षा और नागरिक स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाए, न कि डर और दमन का कारण बने
ब्रिटिश शासन द्वारा 1923 में लागू किया गया ‘ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट’ मूलत: साम्राज्यवादी गोपनीयता की रक्षा के लिए था। स्वतंत्र भारत ने इसे जस का तस बनाए रखा। आज भी इसके तहत कोई भी
सरकारी दस्तावेज, स्थान या जानकारी जो ‘गोपनीय’ मानी जाती है, उसे बिना अनुमति साझा करना अपराध है। इस कानून की धारा 3 जासूसी से सम्बंधित है और 14 साल तक की सजा का प्रावधान करती है। धारा 5, जिसमें सूचनाओं का लापरवाह तरीके से लीक होना शामिल है, 3 से 14 साल तक की सजा दे सकती है।
‘ऑपरेशन सिंदूर’ की सैन्य सफलता के तुरंत बाद देश में एक आंतरिक सुरक्षा अलर्ट जारी किया गया। इस दौरान भारत की खुफिया और साइबर निगरानी एजेंसियों ने उन डिजिटल खातों की पहचान की जो या तो
पाकिस्तान स्थित हैंडलरों से संवाद में थे या देश विरोधी पोस्ट साझा कर रहे थे। इस सिलसिले में सबसे प्रमुख गिरफ्तारी हुई हरियाणा की एक ट्रैवल ब्लॉगर ज्योति रानी की, जिन्हें 16 मई 2025 को पकड़ा गया। आरोप है कि वह पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के संपर्क में थी और व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम जैसे माध्यमों से गोपनीय सूचनाएं साझा करती थीं। इसके अलावा, पंजाब के गुरदासपुर से सुखप्रीत सिंह और करनबीर सिंह को भारतीय सेना की गतिविधियों से जुड़ी जानकारी आईएसआई को भेजने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। उनके पास से तीन मोबाइल फोन और आठ जिंदा कारतूस बरामद हुए। उत्तर प्रदेश के कैराना से नाउमेन इलाही नामक व्यक्ति को आईएसआई के नेटवर्क से जुड़ने और संवेदनशील जानकारियां साझा करने के आरोप में पकड़ा गया। गुजरात में जासिम शहनवाज अंसारी नामक युवक को 50 से अधिक सरकारी वेबसाइटों पर साइबर हमला करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया।
पाकिस्तानी अधिकारियों संग ज्योति
नागपुर में एक महिला को एलओसी पार कर पाकिस्तान जाने और वहां एक संदिग्ध पादरी से मिलने के बाद गोपनीय सूचनाओं के आदान- प्रदान के आरोप में ओएसए के तहत हिरासत में लिया गया। ऐसे लोगों की तादात लगातार बढ़ती जा रही है। इन सभी मामलों में ओएसए की धारा 3 और 5 के तहत मुकदमे दर्ज किए गए हैं। ये घटनाएं स्पष्ट करती हैं कि सोशल मीडिया और डिजिटल संचार प्लेटफॉर्म अब राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर सबसे संवेदनशील क्षेत्र बन चुके हैं।
चर्चित इसरो, नेवी वॉर रूम और रंजीत केस
इसरो के वरिष्ठ वैज्ञानिक नंबी नारायण को ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट के तहत 1994 में गिरफ्तार किया गया था। बाद में सीबीआई ने उन्हें निर्दोष बताया और सुप्रीम कोर्ट ने मुआवजा देने का आदेश दिया। वर्ष 2006 का नेवी वॉर रूम लीक केस ओएसए के अंतर्गत एक खासा चर्चित मामला रहा है इसमें नौसेना के संवेदनशील दस्तावेज लीक करने के मामले में एक अधिकारी को 7 साल की सजा हुई जबकि अन्य को बरी कर दिया गया। इसी प्रकार (2012 में फेसबुक पर हनीट्रैप में फंसे एक वायुसेना कर्मचारी ने संवेदनशील सूचनाएं ‘मैकिनॉट दामिनी’ नामक प्रोफाइल को भेजीं, जो दरअसल एक आईएसआई का एजेंट था। ये कर्मचारी 7 साल जेल में रहा और अब भी इसका मुकदमा लम्बित है।
ओएसए के तहत कानूनी प्रक्रिया और आंकड़ों की स्थिति
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार 2022 में ओएसए के अंतर्गत 55 मामले दर्ज हुए, लेकिन किसी में सजा नहीं हुई। 2021 में केवल 1 व्यक्ति को दोषी ठहराया गया और 2 बरी हुए। 2020 में भी 39 मामले दजज़् हुए, लेकिन सजा का अनुपात लगभग शून्य रहा। 2023 की एक रिपोर्ट बताती है कि इस कानून के तहत अदालतों में मामलों की लम्बित दर 98.5 प्रतिशत है। यानी अधिकांश मामले न तो तय होते हैं, न दोष सिद्ध होते हैं, बल्कि सालों तक कानूनी अड़चनों में फंसे रहते हैं। यह साफ करता है कि ओएसए के तहत दोष सिद्ध करना अत्यंत कठिन है।
पुलिस हिरासत में (बाएं से) ज्योति रानी, सुखप्रीत सिंह और करणबीर सिंह
डिजिटल युग की नई चुनौती: क्या कानून तैयार है?
ओएसए में आज की डिजिटल जासूसी के लिए कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है। क्या गूगल मैप पर दिखाया गया सैन्य क्षेत्र गोपनीय है? क्या सोशल मीडिया चैट सार्वजनिक मानी जाएगी? क्या किसी पत्रकार की रिपोर्ट राष्ट्रविरोधी है? यह कानून इन सब सवालों का उत्तर नहीं देता। इसकी अंतिम समीक्षा 1967 में हुई थी, जबकि तकनीकी क्रांति और डेटा विस्फोट 21वीं सदी की देन है। आज जासूसी केवल फाइल चुराने या कैमरे से फोटो लेने तक सीमित नहीं है। अब यह यूएसबी ड्राइव, टेलीग्राम ग्रुप, फर्जी ट्विटर प्रोफाइल और व्हाट्सएप कॉल के जरिए होती है।
कानूनी पेंच और अभियोजन की चुनौतियां
ओएसए मामलों में अभियोजन के लिए यह साबित करना मुश्किल होता है कि आरोपी के पास जो दस्तावेज हैं, वे ‘वास्तव में गोपनीय’ हैं और देश की सुरक्षा के लिए हानिकारक हो सकते थे। जब मामला सार्वजनिक डोमेन में पहले से हो, जैसे विकिपीडिया या रक्षा विश्लेषण साइटों पर, तो अदालत में यह साबित करना मुश्किल हो जाता है कि आरोपी की मंशा जासूसी की थी। इसके अलावा, अक्सर चार्जशीट दाखिल करने में देरी, जांच अधिकारी का तबादला और गवाहों की अनुपलब्धता ओएसए के मामलों को ढीला कर देते हैं।
क्या अब बदलाव की जरूरत है?
ओएसए को डिजिटल युग के अनुकूल बनाना अब समय की मांग है। इसके लिए गोपनीय जानकारी की परिभाषा को तकनीकी रूप से स्पष्ट किया जाए। डिजिटल माध्यम में ओपन-सोर्स बनाम गोपनीय सूचनाओं की स्पष्ट रेखा खींची जाए। व्यावसायिक और साइबर जासूसी को अलग वर्गों में रखा जाए। बगैर ठोस सबूत मीडिया ट्रायल और सोशल मीडिया पर चरित्र हनन से बचा जाए।