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क्या फिर पलटी मारेंगे नीतीश

बिहार के मुख्यमंत्री भाजपा संग पुनर्मिलन के बाद सहज नहीं हो पा रहे हैं। अटल बिहारी काल में भाजपा के नजदीकी आए नीतीश कुमार ने अपनी छवि एक धर्म और पंथ निरपेक्ष नेता की बनाई है इस छवि को बरकरार रखने के लिए वे हमेशा सजग भी रहे हैं। 1996 में पहली बार एनडीए गठबंधन में शामिल हुए नीतीश ने भारतीय राजनीति के पायदान में जय प्रकाश नारायण, कर्पूरी ठाकुर, राममनोहर लोहिया, एसएन सिन्हा और विश्वनाथ प्रताप सिंह के सहारे कदम रखा। मैक्निकल इंजिनियंरिंग करने के बाद नीतीश कुमार ने कुछ अर्सा बिहार इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में नौकरी की लेकिन वहां उनका मन लगा नहीं। जेपी के इंदिरा विरोधी आंदोलन में सक्रिय रहे नीतीश 1985 में पहली बार बिहार विधानसभा के सदस्य बने नीतीश विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार में केंद्रिय कृषि राज्यमंत्री बन राष्ट्रीय राजनीति में उतरे। अव्ल सरकार में रेल, कृषि और सडक परिवहन मत्रांलयों के केबिनेट मंत्री रहे नीतीश कुमार हालांकि अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को लेकर खासे सतर्क उतरे रहते आए हैं लेकिन 2002 के गुजरात दगों के बाद भी वे एनडीए का हिस्सा बने रहे। उनकी राजनीति को समझने वाले भली-भांति जानते हैं कि नीतीश के लिए सत्ता में बने रहना भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना अपनी समाजवादी छवि को बनाए रखना। यही कारण है 13 वर्ष तक एनडीए का हिस्सा बने रहे नीतीश कुमार ने 2013 में भाजपा संग अपना रिश्ता तोड़ने का फैसला तक उठाया जब नरेंद्र मोदी भाजपा के पीएम उम्मीदवार घोषित कर दिए गए। इसके बाद वे लगातार नरेंद्र मोदी की पुरजोर खिलाफत कर विपक्षी दलों की धुरी बनने का प्रयास करते रहे। 2014 लेकिन भाजपा से अलग हो जद (यू) लोकसभा की मात्र दो सीटों पर विजय पा सका।


इस अपमानजक हार से सबक देते हुए नीतीश ने धर्मनिरपेक्ष ताकतों की एकता का हवाला देते हुए अपने घोर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी लालू प्रसाद का दामन थाम लिया। 2015 में राज्य विधानसभा के लिए हुए चुनाव में नीतीश-लालू गठबंधन सत्ता पाने में सफल तो हुआ जरूर लेकिन नीतीश कुमार कुछ और ही खिचड़ी पकाने की तैयारी में जुट गए। पहले उन्होंने प्रयास किया कि वे 2019 के आम चुनाव में विपक्ष के पीएम उम्मीदवार घोषित हो जाऐ। इसके लिए उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी संग दोस्ती की शुरुआत की। लेकिन विपक्षी राजनीति के पुराने चावलों को नीतीश पर भरोसा नहीं था। उनके पीएम उम्मीदवार बनने के प्रयास इस चलते खास आगे न बढ़ सके। इस बीच लालू यादव की पार्टी संग भी उनकी दूरी बढ़ने लगी। ऐसे में एकाएक ही नीतीश कुमार ने वो कर दिया था जिसकी उम्मीद किसी को न थी। 17 मई, 2017 को उन्होंने विपक्षी महागठबंधन से किनारा कर एक बार फिर भाजपा का दामन थाम लिया। भाजपा की सांप्रदायिक नीतियों की खिलाफत के नाम पर 2015 का चुनाव जीतने वाले नीतीश बड़ी आसानी से अपने ही कहे से मुकर गए। 2019 के लोकसभा चुनाव उन्होंने एनडीए के भीतर रह सके। पार्टी को 16 लोकसभा सीटों पर विजय भी मिली लेकिन केंद्रीय मंत्री मंडल में मनमाफिक प्रतिनिधित्व न मिलने से नीतीश नाराज हो गए। तब से उनके सुर बदलते नजर आ रहे हैं। उन्होंने ‘ट्रिपल तलाक’, ‘अनुच्छेद 370’, ‘यूनिफार्म सिविल कोड’ और अयोध्या में राम मंदिर निमार्ण जैसे मुद्दों पर भाजपा का विरोध शुरू कर डाला है। 20 जुलाई को दरभंगा जिले में बाढ़ का जायजा लेने पहुंचे नीतीश की राजद नेता अब्दुलबारी सिद्धिकी संग लंबी मुलाकात ने भी इन कयासबाजियों को तेज कर दिया है कि वे कुछ नई खिचड़ी पकाने में जुटे हैं।


दरअसल 2019 के लोकसभा चुनाव का आकलन नीतीश के पक्ष में है। भाजपा संग कुल 3.10 लाख नए वोटर जुडे़ तो जद (यू) के साथ 24.90 लाख। यूं नीतीश के मन को समझ पाना लगभग असंभव है, उनके हालिया एक्शन लेकिन इशारा कर रहे है कि वे भाजपा का साथ छोड़ सकते हैं। संकट लेकिन उनके साथ उनकी विश्वसनीयता का है। विपक्षी दलों को उनसे मिला धोखा इतना अप्रत्याक्षित और इतना गहरा था कि उसके घाव आसानी से भरते नजर नहीं आ रहे हैं।

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