गत् सप्ताह देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने गुजरात में दो दिवसीय अधिवेशन आयोजित किया। जिसके कई मायने निकाले जा रहे हैं तो सवाल भी खड़े हो रहे हैं। पूछा जा रहा है कि क्या गुजरात अधिवेशन के जरिए कांग्रेस खुद को मजबूत कर पाएगी? खासकर बीजेपी की प्रयोगशाला और पीएम मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के गृह राज्य है?
लोकसभा चुनाव 2024 में 99 सीटें जीतकर अपने को थोड़ा मजबूत करने वाली कांग्रेस देश के कई राज्यों में दशकों से सत्ता से बाहर है। हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक के बाद झारखंड (गठबंधन सरकार) को छोड़कर कांग्रेस सभी जगह पर सत्ता से बाहर है। ऐसे में गत सप्ताह 8 से 9 अप्रैल को दो दिवसीय कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन गुजरात के अहमदाबाद में हुआ। जिसके कई मायने निकाले जा रहे हैं। वहीं सवाल है कि क्या कांग्रेस खुद को मजबूत कर पाएगी? खासकर बीजेपी की प्रयोगशाला और पीएम मोदी-गृह मंत्री अमित शाह के गृह राज्य में?
राजनीतिक गलियारों में इसके कई मायने निकाले जा रहे हैं। कांग्रेस के गुजरात अधिवेशन 2027 चुनावों की तैयारियों से जोड़कर देखा जा रहा है। राहुल गांधी लोकसभा में नेता विपक्ष बनने के बाद दो बार राज्य का दौरा कर चुके हैं। पहली बार 2024 में और इसके बाद वह पिछले महीने मार्च में गुजरात दौरे पर गए थे। उन्होंने तब तमाम नेताओं के साथ निचले स्तर के कार्यकर्ताओं से मुलाकात की थी। कांग्रेस महात्मा गांधी और सरदार पटेल की जन्मभूमि पर खुद को मजबूत करना चाहती है। बीजेपी स्टैच्यू ऑफ यूनिटी से कांग्रेस नेताओं की दूरी को लेकर अभी तक निशाना साधती आई है। अधिवेशन के पहले दिन जब अहमदाबाद स्थित सरदार वल्लभ भाई पटेल मेमोरियल स्मारक में राहुल गांधी ने प्रतिमा पर माल्यार्पण किया तो बीजेपी की तरफ से आरोप लगाया गया कि कांग्रेस नेता ने सरदार पटेल का अपमान किया।
गुजरात महात्मा गांधी की जन्मभूमि है लेकिन सरदार पटेल गुजरात में सबसे बड़े किरदार हैं। शायद यही वजह है कि अब कांग्रेस बीजेपी द्वारा नेहरू-पटेल के सम्बंधों को लेकर कही जाने वाली बातों को काउंटर करना चाहती है। कांग्रेस महासचिव ने बीजेपी के सरदार पटेल प्रेम पर सीडब्ल्यूसी बैठक में निशाना साधा और कहा कि सरदार पटेल के मेमोरियल को चलाने वाले ट्रस्ट पर टैक्स लगाया जा रहा है। सभी सदस्यों को राजमोहन गांधी द्वारा लिखित ‘पटेल लाइफ’ किताब भी दी गई। कांग्रेस का मकसद साफ है कि अब वह पटेल और नेहरू के सम्बंधों को लेकर फैलाए जाने वाले झूठ और गुमराह करने वाली बातों को तथ्यों के साथ काउंटर करेगी। विश्लेषकों का कहना है कि सीधा जवाब है कि कांग्रेस के लिए सत्ता का सपना तो काफी मुश्किल है, अगर वह 2027 में चुनावों में 2017 का प्रदर्शन दोहरा ले तो भी बड़ी बात है। इसकी वजह है राज्य में आम आदमी पार्टी के आने से बना त्रिकोण। आप ने 2022 के विधानसभा चुनावों में पांच सीटें जीतने के साथ 14 फीसदी वोट हासिल कर कांग्रेस की कमर तोड़ दी थी।
कांग्रेस की कोशिश गुजरात की धरती से भाजपा, विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सीधी चुनौती देने की है। वो इसमें कितना सफल हो पाएंगे, यह तो आगामी चुनावों के नतीजों में पता चलेगा। हालांकि, किसी नई रणनीति के बजाय कांग्रेस का पहिया एक बार फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जातीय राजनीति के इर्द-गिर्द ही घूमता नजर आ रहा है। पार्टी की निर्भरता पहले की भांति गांधी परिवार पर ही बनी हुई है।
वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को देश में 99 सीटें मिली थीं तब पार्टी नेताओं ने जमकर जश्न मनाया था। इस जीत का सेहरा राहुल गांधी के सिर पर बांधा गया था। हालांकि लोकसभा चुनाव के बाद हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को सफलता नहीं मिली। इसके बावजूद 99 सीटें जीतने का जोश कांग्रेस पार्टी में अब तक बना हुआ है।
लोकसभा चुनाव बाद राहुल गांधी एंग्री यंग नेता की भूमिका में बने हुए हैं। पार्टी भी उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले में खड़ा करने का कोई अवसर नहीं छोड़ रही है। सड़क से लेकर संसद तक राहुल गांधी की एक अलग छवि गढ़ी जा रही है। अहमदाबाद में कांग्रेस के अधिवेशन में राहुल गांधी के दिए भाषण से एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि वो जातीय राजनीति के मैदान में पार्टी को पूरी तरह उतारने के लिए आतुर हैं।
राहुल गांधी ने अधिवेशन में दिए अपने भाषण में कहा कि कांग्रेस दलित, मुस्लिम व ब्राह्माण को साधती रही और अति पिछड़ा जातियां (ओबीसी) हमसे दूर चली गईं। यह और बात है कि एक समय कांग्रेस का नारा था कि न जात पर-न पात पर, इंदिरा जी की बात पर, मुहर लगेगी हाथ पर। ओबीसी को आरक्षण की सिफारिश करने वाले मंडल कमीशन के विरोध में सबसे बड़ा भाषण राहुल गांधी के पिता स्वर्गीय राजीव गांधी ने संसद में दिया था। शायद ओबीसी तभी से कांग्रेस से नाखुश हैं। ब्राह्माण भी राम मंदिर आंदोलन के बाद भाजपा के साथ जुड़ते चले गए।
दलितों का बड़ा वर्ग अब भी कांग्रेस के साथ है। हालांकि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में बहुजन समाज पार्टी के उदय के साथ दलित शिफ्ट हुए हैं। जहां-जहां क्षेत्रीय दल जैसे समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, द्रमुक, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी सत्ता में आए वहां मुस्लिम कांग्रेस से छिटक गया। मुस्लिमों को दोबारा अपनी तरफ लाने की कांग्रेस की कोशिशें तेज हो चली हैं। राहुल गांधी कह रहे हैं कि मुस्लिम हितों को लेकर वो पीछे नहीं हटेंगे। यह और बात है कि यह कोशिशें उसके सहयोगी दलों को रास नहीं आ रही हैं।
राहुल गांधी का जोर भले मुस्लिम हितों पर अडिग रहने का है, लेकिन इसे लेकर कई बार उनकी पार्टी के नेता भी असहज नजर आाए हैं। पार्टी के मुस्लिम हित ने हिंदुओं के बड़े वर्ग को भाजपा की ओर शिफ्ट किया है। अनुच्छेद 370, नागरिकता संशोधन कानून और अब वक्फ संशोधन कानून पर कांग्रेस का रुख बहुसंख्यकों को रास नहीं आया है। पिछले दिनों संपन्न प्रयागराज महाकुंभ और सद्गुरु के कार्यक्रम में शामिल होने पर जिस तरह से कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार की पार्टी के अंदर से आलोचना हुई, उसने भी कांग्रेस को लेकर बहुसंख्यकों को निराश किया।
अहमदाबाद अधिवेशन में कांग्रेस ने एक बार फिर सरदार वल्लभभाई पटेल के बहाने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर हमला बोला है। पार्टी ने अपने अधिवेशन को सरदार वल्लभभाई पटेल के नाम पर बने मेमोरियल में रखा। पार्टी ने यह भी याद दिलाया कि कैसे सरदार वल्लभभाई पटेल ने संघ पर प्रतिबंध लगाया था? पार्टी ने इस मेमोरियल में अपने अधिवेशन को विशेष भी बताया। यह और बात है कि गुजरात में ही बने स्टैचू ऑफ यूनिटी को देखने आज तक राहुल गांधी नहीं गए हैं।
कांग्रेस नेता स्टैचू ऑफ यूनिटी पर जाने से परहेज करते हैं, क्योंकि इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बनवाया है। सरदार पटेल की विरासत को अपने हाथों से जाता देख कांग्रेस परेशान भी है। पार्टी को अब सरदार पटेल और पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बीच सम्बंधों को बताना पड़ रहा है। कहीं न कहीं पार्टी भाजपा के ट्रैप में फंसती नजर आती है।
गुजरात में पिछले तीन दशक से कांग्रेस पार्टी सत्ता से बाहर है। विगत विधानसभा चुनाव में तो उसका अब तक का सबसे निराशाजनक प्रदर्शन रहा था। लोकसभा चुनाव में भी पार्टी को बहुत अधिक सफलता गुजरात में नहीं मिली, लेकिन राहुल गांधी को शायद लग रहा है कि गुजरात के रास्ते वह देश की सत्ता को पुनः हासिल कर सकते हैं।
गुजरात संघ परिवार की प्रयोगशाला माना जाता है। जहां नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने पिछले कुछ सालों में लगातार अच्छा प्रदर्शन किया है। शायद राहुल गांधी गुजरात में आकर नरेंद्र मोदी को सीधी चुनौती देकर अपने इंडी गठबंधन के सहयोगियों को बताना चाहते हैं कि वो गठबंधन में बड़े भाई की भूमिका में हैं।
वर्ष 2029 के चुनाव में अभी चार साल से अधिक का समय है। वर्ष 2024 के नतीजों को लेकर कांग्रेस का उत्साह अभी भी कायम है। पार्टी को लग रहा है कि 2029 उनके लिए बेहतर अवसर हो सकता है और इसकी तैयारी गुजरात से राहुल गांधी ने शुरू की है। अब देखना यह होगा कि राहुल गांधी के यह प्रयास कितने सफल होते हैं। संघ विरोध और जातीय राजनीति कांग्रेस को कितनी चुनावी सफलता दिला पाती है।
क्या है कांग्रेस की तैयारी?
कांग्रेस के रणनीतिकारों का मानना है कि 2027 तक देश की राजनीति काफी बदलेगी। पीएम मोदी तब किस भूमिका में रहते हैं इस पर बीजेपी का गेमप्लान निर्भर करेगा। ऐसे में कांग्रेस का मजबूत गढ़ रहे गुजरात में फिर से खुद को मजबूत करने का यह सही समय है। इसीलिए राहुल गांधी ने गुजरात से ही बीजेपी-आरएसएस के खिलाफ बिगुल फूंकने की तैयारी की है। जानकार कहते हैं कि दशकों बाद अहमदाबाद में इतने सारे कांग्रेस के होर्डिंग्स और फ्लैग्स दिखाई दिए। यह सब गुजरात में हो रहा वह अपने आप में बड़ी बात है। यह निर्णय साहसी और सराहनीय है। कांग्रेस ने भाजपा को उसके स्वघोषित आदर्श राज्य में चुनौती देने का साहस किया है जो अर्थपूर्ण रीत से प्रतीकात्मक है। सभी लड़ाइयां हमेशा जीतने या हारने के लिए नहीं लड़ी जाती हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि युद्ध के मैदान से भागना नहीं चाहिए,बल्कि सामने आना चाहिए।
क्यों अहम है गुजरात?
महात्मा गांधी और सरदार वल्लभ भाई पटेल की जन्मभूमि में अधिवेशन आयोजित करने में कांग्रेस की वीरता उल्लेखनीय है। हालांकि कांग्रेस को गुजरात में खुद को फिर से तलाशने की जरूरत है लेकिन इस कार्यक्रम के साथ वे बहादुरी से युद्ध क्षेत्र में उतर आए हैं। बीजेपी जहां सबसे ज्यादा मजबूत है। वहीं से लड़ाई की तैयारी की है। इसका सबूत कांग्रेस का 64 साल बाद गुजरात में अधिवेशन करना है। यही वजह है कि अब राहुल हर दांव गुजरात में खेलने के मूड में हैं। कहा जा रहा है आने वाले दिनों में राजनीतिक लड़ाई दिलचस्प होगी। कांग्रेस ने इसीलिए ओबीसी का मुद्दा उठाते हुए फिर जाति जनगणना की बात की है।
गौरतलब है कि कांग्रेस अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। आज पार्टी में असंतोष की सुगबुगाहट स्पष्ट महसूस की जा सकती है। 2014 के बाद से लोकसभा के तीन चुनावों और अधिकांश राज्यों के विधानसभा चुनावों में एक के बाद एक हार ने कांग्रेस के आत्मविश्वास और विचारधारा में भरोसे को बुरी तरह से झकझोर दिया है। कांग्रेस ने वक्फ बोर्ड विधेयक को जिस तरह से डील किया वह पार्टी की दशा और दिशा को समझने के लिए काफी है। इस पर हुई बहस से न केवल गांधी परिवार दूर रहा, बल्कि पार्टी के विचारक जयराम रमेश और एआईसीसी प्रवक्ताओं ने भी मुख्य मुद्दों पर भाजपा का विरोध करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया। जिस तरह से संसदीय बहस की जिम्मेदारी कमोबेश गौरव गोगोई, सैयद नासिर हुसैन और इमरान प्रतापगढ़ी पर छोड़ दी गई।