चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर सवाल उठ रहे हैं। विपक्षी दल तो उसे भाजपा आयोग तक करार दे रहे हैं। आरोप लगा रहे हैं कि आयोग सरकार के सामने घुटने टेक चुका है। ऐसे में हर किसी को टीएन शेषन याद आ रहे हैं

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त स्वर्गीय टीएन शेषन के बारे में जानने वाले ज्यादातर लोग यही कहते हैं कि उस दौर में देश के कई दिग्गज नेता केवल दो चीजों से डरते थे, पहला भगवान से और दूसरा टीएन शेषन से। टीएन शेषन के बारे में हम जैसे-जैसे पढ़ते जाते हैं, उनके निर्णयों और पाॅलिटिकल एनालिसिस राजनीतिक विश्लेषण के कई किस्सों से यह बात स्पष्ट भी होती जाती है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि भारत की नौकरशाही में एक युग था ‘शेषन युग’। कारण कि जितना नाम और सम्मान टीएन शेषन ने कमाया वह कोई विरला नौकरशाह ही कमा सकता है। उनका ऐसा जलवा था कि मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि ‘आई ईट पाॅलिटीशियंस फाॅर ब्रेकफास्ट’। वे नाश्ते में नेताओं को खाते थे। दरअसल, उनकी सख्ती और ईमानदारी के आगे कोई भी नेता मजबूर ही नजर आता था। 90 के दशक में जब शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में आसीन हुए तो उससे पहले तक मुख्य चुनाव आयुक्त को सिर्फ एक आज्ञाकारी नौकरशाह के तौर पर ही देखा और माना जाता था। वो वही करता था जो उस समय की सरकार चाहती थी।
वर्तमान चुनाव आयोग की दशा और टीएन शेषन
आज हमें शेषन की याद क्यों आ रही भला? लोकतांत्रिक व्यवस्था में आस्था रखने वाले सभी लोगों को आज शेषन को इसलिए भी याद करना चाहिए, क्योंकि देश में चुनाव का माहौल है और चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं।
राजनीतिक-वैचारिक विभाजन आज इतना तीखा हो गया है कि किसी भी विषय पर निष्पक्ष एवं न्यायपूर्ण तरीके से एक राय कायम करना संभव ही नहीं लगता है। लेकिन मूल प्रश्न तो यही है कि चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ जो कदम उठाया, वह संविधान द्वारा प्रदत्त उसके दायित्वों तथा चुनाव संबंधी नियमों के अनुकूल है या नहीं? इसके विरोध में ममता के धरने को किस तरह देखा जाए? चुनाव आयोग ने चुनावी आचार संहिता के उल्लंघन का दोषी मानते हुए ममता बनर्जी को 24 घंटे के लिए प्रतिबंधित किया। अल्पसंख्यकों से वोट बंटने न देने की अपील और महिलाओं से सुरक्षाबलों का घेराव करने के आह्नान को लेकर आयोग ने दो नोटिस जारी किए थे।
उधर असम में ईवीएम मशीन एक भाजपा नेता की गाड़ी में मिलने की घटना के बाद कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने चुनाव आयोग के लिए एक ट्वीट भी किया था, जिसमें उन्होंने चुनाव आयोग के लिए इलेक्शन ‘कमीशन’ शब्द का इस्तेमाल किया। राहुल ने एक और ट्वीट में लिखा कि चुनाव आयोग की ईवीएम खराब, भाजपा की नीयत खराब, लोकतंत्र की हालत खराब।
वैसे तो पांच राज्यों में चुनाव हुए लेकिन पश्चिम बंगाल में चुनाव के दौरान निर्देशित आचार संहिता की जिस तरह दुर्गति हो रही है उस पर चुनाव आयोग सवालों के कटघरे में जरूर खड़ा है। हिंसक वातावरण और नियम-कानून की कोई जवाबदेही नहीं। ऐसे में यदि आज टीएन शेषन होते तो वो क्या करते, यह लाजमी ही मन-मस्तिष्क में कौंध रहा है। चुनाव आयोग की भूमिका को देखते हुए टीएन शेषन की बात करनी पड़ रही है।
सरकारें बदली, लेकिन शेषन नहीं बदले
शेषन ने अपने कार्यकाल के दौरान प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से लेकर हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल गुलशेर अहमद और बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव तक किसी को नहीं बख्शा। उन्होंने बिहार में पहली बार चार चरणों में चुनाव करवाया और चारों बार चुनाव की तारीखें बदली गईं। ये बिहार के इतिहास का सबसे लंबा चुनाव था।
शेषन एक अच्छे प्रबंधक की छवि के साथ भारतीय अफसरशाही के सर्वोच्च पद कैबिनेट सचिव तक पहुंचे थे। उनकी प्रसिद्धि का कारण ही यही था कि उन्होंने जिस मंत्रालय में काम किया उस मंत्री की छवि अपने आप ही सुधर गई। लेकिन 1990 में मुख्य चुनाव आयुक्त बनने के बाद इन्हीं शेषन ने अपने मंत्रियों से मुंह फेर लिया। उनका दूसरा नाम रखा गया, ‘अल्सेशियन।’ अल्सेशियन यानी कि कुत्ते की एक ऐसी प्रजाति जो पुलिस विभाग में भी तैनात की जाती है जो अंधों को भी रास्ता दिखा सकता है और पूरी मुस्तैदी से उनकी सुरक्षा भी कर सकता है।
शेषन को चुनाव सुधार के कामों का श्रेय
भारत में चुनाव सुधार का श्रेय टीएन शेषन को जाता है। 1992 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उन्होंने सभी जिला मजिस्ट्रेटों, चोटी के पुलिस अधिकारियों और करीब 280 चुनाव पर्यवेक्षकों को ये साफ कर दिया कि चुनाव की अवधि तक किसी भी गलती के लिए वो उनके प्रति जवाबदेह होंगे। एक रिटर्निंग आफीसर ने तभी एक मजेदार टिप्पणी की थी, ‘हम एक दयाविहीन इंसान की दया पर निर्भर हैं।’
सिर्फ उत्तर प्रदेश में शेषन ने करीब 50,000 अपराधियों को ये विकल्प दिया कि या तो वो अग्रिम जमानत ले लें या अपने आप को पुलिस के हवाले कर दें।
हिमाचल प्रदेश में चुनाव के दिन पंजाब के मंत्रियों के 18 बंदूकधारियों को राज्य की सीमा पार करते हुए धर दबोचा गया। उत्तर प्रदेश और बिहार सीमा पर तैनात नागालैंड पुलिस ने बिहार के विधायक पप्पू यादव को सीमा नहीं पार करने दी।
गुलशेर अहमद और शेषन का दिलचस्प किस्सा
शेषन के चंगुल में एक बार शिकार हुए थे हिमाचल प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल गुलशेर अहमद। चुनाव आयोग द्वारा सतना का चुनाव स्थगित करने के बाद उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था। गुलशेर अहमद पर आरोप था कि उन्होंने राज्यपाल पद पर रहते हुए अपने पुत्र के पक्ष में सतना चुनाव क्षेत्र में चुनाव प्रचार किया था। उसी तरह राजस्थान के तत्कालीन राज्यपाल बलिराम भगत को भी शेषन की सख्ती का शिकार बनना पड़ा था जब उन्होंने एक बिहार के अफसर को पुलिस का महानिदेशक बनाने की कोशिश की। इसी तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश में पूर्व खाद्य राज्य मंत्री कल्पनाथ राय को चुनाव प्रचार बंद हो जाने के बाद अपने भतीजे के लिए चुनाव प्रचार करते हुए पकड़ा गया।
जिला मजिस्ट्रेट ने उनके भाषण को बीच में रोकते हुए उन्हें चेतावनी दी कि अगर उन्होंने भाषण देना जारी रखा तो चुनाव आयोग को वो चुनाव रद्द करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होगी।
क्या आज के परिपेक्ष्य में चुनाव आयोग की यह मुस्तैदी किसी भी रूप में देखने को मिलती है? जवाब होगा, ‘नहीं’। क्या कारण हैं कि जिस चुनाव आयोग को शेषन जैसे इमानदार और कर्मठ अफसर ने उसके अस्तित्व का बोध कराया आज वह सरकारों के सामने बौना नजर आ रहा है। इस पर बेहद ही गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है, क्योंकि यह एक सिस्टम का ऐसा लूप होल है जिससे पूरा देश सीधे प्रभावित हो रहा है।
जब टीएन शेषन ने आईएएस से कहा कि ‘आप से ज्यादा तो एक पान वाला कमाता है।’
चुनाव आयोग में टीएन शेषन का कार्यकाल समाप्त होने के बाद मसूरी की लाल बहादुर शास्त्री अकादमी ने उन्हें आईएएस अधिकारियों को भाषण देने के लिए बुलाया था।
शेषन का पहला वाक्य था, ‘आपसे ज्यादा तो एक पान वाला कमाता है।’ उनकी साफगोई ने ये सुनिश्चित कर दिया कि उन्हें इस तरह का निमंत्रण फिर कभी न भेजा जाए।
शेषन अपनी आत्मकथा लिख चुके हैं लेकिन वो इसे छपवाने के लिए तैयार नहीं थे, क्योंकि उनका मानना था कि इससे कई लोगों को तकलीफ होगी। उनका कहना था, ‘मैंने ये आत्मकथा सिर्फ अपने संतोष के लिए लिखी है।’
शेषन ने बस की ड्राइविंग क्यों सीखी?
शेषन 1955 बैच के आईएएस टाॅपर थे। भारतीय नौकरशाही के लगभग सभी महत्वपूर्ण पदों पर काम करने के बावजूद वो चेन्नई में यातायात आयुक्त के रूप में बिताए गए दो सालों को अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ समय मानते थे। उस पोस्टिंग के दौरान 3000 बसें और 40,000 हजार कर्मचारी उनके नियंत्रण में थे। एक बार एक ड्राइवर ने शेषन से पूछा कि अगर आप बस के इंजन को नहीं समझते और ये नहीं जानते कि बस को ड्राइव कैसे किया जाता है, तो आप ड्राइवरों की समस्याओं को कैसे समझ पाएंगे।
एक बार एक बस वर्कशाॅप हुआ। शेषन ने इसको एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने न सिर्फ बस की ड्राइविंग सीखी, बल्कि बस वर्कशाॅप में भी काफी समय बिताया। उनका कहना है, ‘मैं इंजनों को बस से निकाल कर उनमें दोबारा फिट कर सकता था।’ एक बार उन्होंने बीच सड़क पर ड्राइवर को रोक कर स्टेयरिंग संभाल लिया और यात्रियों से भरी बस को 80 किलोमीटर तक चलाया। हालांकि यह सिर्फ शेषन ही कर सकते थे।
पहचान पत्र के इस्तेमाल का निर्णय
ये भी शेषन का ही दम था कि उन्होंने चुनाव में पहचान पत्र का इस्तेमाल आवश्यक कर दिया। हालांकि जब उन्होंने यह फैसला लिया था तो उनका काफी विरोध भी किया गया था।
नेताओं ने उसका ये कह कर विरोध किया कि ये भारत जैसे देश के लिए बहुत खर्चीली चीज है। शेषन का जवाब था कि अगर मतदाता पहचान पत्र नहीं बनाए गए तो 1 जनवरी 1995 के बाद भारत में कोई चुनाव नहीं कराए जाएंगे। कई चुनावों को सिर्फ इसी वजह से स्थगित किया गया, क्योंकि उस राज्य में वोटर पहचान पत्र तैयार नहीं थे।
एक मजेदार किस्सा
कश्मीर के प्रधानमंत्री रह चुके शेख अब्दुल्लाह को कश्मीर षड्यंत्र मामले में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1958 में पकड़ा। उन्हें कुछ समय जेल में और फिर नजरबंद रखा गया। तमिलनाडु में डिंडिगुल जिले की कोडई झील के निकट एक होटल में नजरबंद रखने के दौरान शेख की जिम्मेदारी मदुरै के जिलाधिकारी टीएन शेषन को दी गई।
शेषन को शेख द्वारा भेजे जा रहे हर पत्र पढ़ने के आदेश थे। शेख इससे झुंझलाए और नाराज थे। उन्होंने शेषन से बचने के लिए चाल चली और एक जरूरी पत्र लिखा। शेषन उनसे मिलने गए तो शेख ने वह पत्र उनके सामने ही भेजने के लिए दिया। शेषन ने पत्र देखा तो उस पर पता लिखा था ‘डाॅ एस राधाकृष्णन, भारत के राष्ट्रपति।’
शेख ने बनावटी मुस्कान के साथ पूछा, ‘क्या आप अब इस पत्र को भी खोलेंगे?’ शेषन पर इसका कोई असर नहीं हुआ। उन्होंने कहा, ‘पत्र पर लिखे पते का मेरे लिए कोई मतलब नहीं है, मैं इसे आपके सामने ही खोलूंगा।’ शेख इससे बेहद खफा हो गए और घोषणा कर दी कि वे अपने साथ किए जा रहे खराब व्यवहार के खिलाफ आमरण अनशन करेंगे।
इस पर शेषन ने शेख से कहा, ‘सर, यह मेरा कर्तव्य है कि आपकी हर जरूरत का ख्याल रखूं। मैं यह देखूंगा कि कोई गलती से आपके सामने पानी का एक गिलास लेकर भी न आ जाए।’
उनसे एक बार एक पत्रकार ने पूछा था, ‘आप हर समय कोड़े का इस्तेमाल क्यों करना चाहते हैं?’ शेषन का जवाब था, ‘मैं वही कर रहा हूं जो कानून मुझसे करवाना चाहता है। उससे न कम, न ज्यादा। अगर आपको कानून नहीं पसंद तो उसे बदल दीजिए। लेकिन जब तक कानून है मैं उसको टूटने नहीं दूंगा।’
एक था टीएन शेषन वाला चुनाव आयोग और एक है वर्तमान वाला चुनाव आयोग। ममता के खिलाफ कार्रवाई करने वाला चुनाव आयोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह पर कानून लागू क्यों नहीं करता? क्या चुनाव आयोग सत्ताधारी पार्टी की गुलामी कर रहा है? क्या यह भाजपा के आइटी सेल की तरह काम करने लगा है?
कई विपक्षी नेताओं ने चुनाव आयोग को भाजपा आयोग तक कह दिया। बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने भी पिछले दिनों सोशल मीडिया पर लिखा था कि स्वतंत्र भारत में एक चुनाव आयोग होता था। दूसरी ओर माकपा नेता सूर्यकांत मिश्र कह चुके हैं कि चुनाव आयोग एकतरफा कार्रवाई कर रहा है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अधीर चैधरी ने आयोग के फैसले को जरूरी लेकिन मुख्यमंत्री के लिए अपमानजनक करार दिया। उनका कहना है कि आयोग निष्पक्ष नहीं नजर आ रहा है। शिवसेना सांसद संजय राउत ने भी एक ट्वीट में कहा है कि भाजपा के इशारे पर ही ममता के खिलाफ कार्रवाई की गई है। यह भारत में स्वतंत्र संस्थानों की संप्रभुता और लोकतंत्र पर सीधा हमला है।
‘मोदी को कायदे-कानून बता देते’
वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ ने ‘दि संडे पोस्ट’ से एक बातचीत में कहा कि ‘मेरा ये मानना है कि शेषन जैसा शख्स नरेंद्र मोदी जैसे शख्स में भी खौफ भर देता, एक दहशत भर देता। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि ये जो सुनील अरोड़ा गए हैं और जो सुशील चंद्रा आए हैं, उनके सामने कितने बौने नजर आते हैं। मैं घुमा-फिराकर नहीं कह रहा हूं, बिल्कुल सीधी-सीधी बात बोल रहा हूं कि नरेंद्र मोदी जैसे शख्स को वह बता देते कि नियम-कायदे क्या होते हैं, काॅन्स्टीट्यूशनल आथोरिटी क्या होती है, सरकार क्या होती है और किसी भी चीफ इलेक्शन कमिश्नर का आखिर क्या काम होता है।
वो बताते कि चीफ इलेक्शन कमिश्नर का काम ये नहीं है कि वो सरकार के प्रति जवाबदेह हो। ये क्या मजाक है कि जहां रैलियां हो रही हैं, वहां आपको कोविड की चिंता नहीं है। जहां कुम्भ हो रहा है वहां कोविड की चिंता नहीं है। शेषन होते तो वो जरूर पूछते कि आखिर सरकार का चुनाव में कोविड को लेकर क्या स्टैंड है? सेलेक्टेड पोजीशन क्यों ली जा रही है? गलत बातें करना जैसे पुलवामा के नाम पर वोट मांगना आदि दुर्भाग्यपूर्ण है। अशोक लवासा ने तो ऐतराज जताया था 2019 में। पर उनका क्या हुआ सब जानते हैं। अगर शेषन होते तो वो सिर्फ ऐतराज न जताते, बल्कि कुछ और भी करते। एमएस गिल भी करते लेकिन वे उस तरह से नहीं करते। वे रोड रोलर नहीं थे, शेषन रोड रोलर थे।
टीएन शेषन होते तो चाहे सरकार के पास 303 सीटें हों या 403 सीटे हों सबको बता देते कि नियम के क्या मायने होते हैं। ये जो सत्ता के नाम पर नई मशीनरी आई है, इसका इस्तेमाल नहीं होता। न शेषन ऐसा होने देते। अगर देखा जाए तो चुनाव आयोग की क्या हस्ती है, ले-देकर 450 या 500 लोग होंगे। लेकिन एक इकबाल है बस।
क्रेडिबिलिटी है। सुनील अरोड़ा और नए लोगों ने इस पूरे इकबाल के साथ काॅम्प्रोमाइज किया है। जहां तक मेरा मानना है, मैं उन्हें जानता था बड़ी अच्छी तरह थे। एक वक्त तो मैंने अपने दफ्तर में ही उनके लिए कैबिन भी बनवाया था। शेषन, स्ट्रिक्ट थे। उन्हें थोड़ा डिक्टोरियल भी कहा जा सकता है। लेकिन वो इस बात को सुनिश्चित करते थे कि हर एक नियम को लागू किया जाए और उसे फाॅलो भी किया जाए। एमएस गिल भी इस बात का खास ख्याल रखते थे। हालांकि शेषन से कम थे। इसके बाद इस मामले थोड़ा बहुत हमने किसी को देखा तो वे थे जेम्स माइकल लिंगदोह।’
जाने-माने पत्रकार मुकेश कुमार कहते हैं कि ‘अगर आज टीएन शेषन होते तो बहुत कुछ जो हो रहा है नहीं होता। आज जिस तरह से इलेक्शन हो रहे हैं, शेषन किसी को बख्शते नहीं। आज चुनाव आयोग की जो स्थिति है वो बेहद ही खराब है। केचुआ कहा जा रहा है आज चुनाव आयोग को। जिसके पास रीढ़ की हड्डी नहीं है। सरकार के इशारों पर काम करने वाला, रीढ़विहीन। जरा-सा कोई यदि कुछ बोलता है तो उस पर अनायास ही, जैसे अशोक लवासा, उन्होंने बोला तो उन्हें हटा दिया गया, उन्हें प्रताड़ित किया गया, उनकी पत्नी को प्रताड़ित किया जा रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने बात उठाई थी कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ कार्यवाही की जाए, 2019 के चुनाव को लेकर।
आज भी देखिए, कोरोना की इतनी बड़ी समस्या खड़ी हो गई है। बंगाल में भी इतने केस आ चुके हैं। लेकिन चुनाव आयोग कोई कदम नहीं उठा रही है। यह भी कहा कि आखिरी चार फेज को चुनाव के, बदले जाएं या रोके जाएं, लेकिन उस पर भी कोई काम नहीं हुआ। ममता बनर्जी पर तो 24 घंटे प्रचार पर रोक लगाई गई लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर या अन्य सत्ता के लोगों पर प्रोटोकाॅल तोड़ने पर कोई कार्यवाही नहीं की गई। असम में हेमंत विश्वकर्मा ने खुलेआम साम्प्रदायिक भाषण दिया उन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। यह बिल्कुल ही भेदभावपूर्ण रवैया है चुनाव आयोग का। सरकार के इशारे पर ऐसा करना, दुर्भाग्यपूर्ण हैं। सुनील अरोरा को हटाने के तुंरत बाद गोवा का राज्यपाल बनाना साफ दिखाता है कि सब कुछ पीएमओ से हैंडल किया जा रहा है। वही हो रहा है जो बीजेपी को सूट करता है।’