नैतिकता के आधार पर लागू करें आरटीई
गुरुद्वारा श्री हेमकुण्ड साहिब ट्रस्ट के अध्यक्ष नरेन्द्रजीत सिंह बिंद्रा एक मृदुभाषी और व्यवहारकुशल व्यक्ति हैं। पिछले कई सालों से हेमकुण्ड यात्रा के सफल संचालन में अहम योगदान दे रहे हैं। बिंद्रा की समाज सेवा को देखते हुए उत्तराखण्ड सरकार ने उन्हें अल्पसंख्यक आयोग का अध्यक्ष बनाया है। आयोग द्वारा अल्पसंख्यक समाज के लिए किये जा रहे कार्यों पर उनसे कृष्ण कुमार की बातचीत के प्रमुख अंशः
राज्य सरकार उत्तराखण्ड में अल्पसंख्यकों के लिये कई योजनाएं चला रही है। कई योजनाओं पर आज तक काम पूरा नहीं हो पाया। इसके क्या कारण हैं?
राज्य और राष्ट्रीय दोनों स्तर पर अल्पसंख्यकों के लिए बहुत सी योजनायें चलाई जा रही हैं। विशेषकर शिक्षा के क्षेत्र में बहुत ज्यादा योजनाएं हैं। लेकिन अल्पसंख्यक समाज अभी तक इसका फायदा नहीं उठा पा रहा है। मुझे लगता है कि इसका सबसे बड़ा कारण जागरूकता का अभाव है। प्रचार का भी अभाव हैं। शिक्षा के लिए दी जा रही छात्रवृत्ति में लोग प्रदेश स्तर पर ही आवेदन कर रहे हैं। उसमें भी जो लक्ष्य हैं उससे आधे भी लाभ नहीं ले पा रहे हैं जबकि केन्द्र सरकार प्रदेश से अधिक धनराशि छात्रवृत्ति में देती हैं। पता नहीं लोग क्यों केन्द्र सरकार को आवेदन नहीं दे रहे हैं।
इन दस वर्षों में ऐसी कौन सी योजनाएं हैं जो पूरी तरह से कामयाब नहीं हो पाई हैं। आपने इसके लिये कोई लक्ष्य रखा है?
मैं समझता हूं कि अल्पसंख्यक समाज शिक्षा के लिए चलाई जा रही योजनाओं का उतना फायदा नहीं उठा पा रहा है जितना कि उसे उठाना चाहिये। देखिये मेरा मानना है कि आज सबसे अधिक जरूरत है शिक्षा की। शिक्षा से ही लोगों में जागरूकता आती है। इसी से जीवन स्तर सुधारा जा सकता है। मैं हैरान हूं कि इन दस वर्षों में अल्पसंख्यक समाज ने शिक्षा के लिए दी जा रही छात्रवृत्ति को लेने के लिये पूरा प्रयास तक नहीं किया। प्रदेश सरकार से अधिक धनराशि केन्द्र सरकार छात्रवृत्ति में देती है। लेकिन लोग इसके लिए आवेदन ही नहीं कर रहे हैं। पिछले वर्ष २४ हजार मुस्लिम छात्रों में से कुल ११ हजार ने ही आवेदन किये और सिक्ख समुदाय से भी कुल ४ हजार छात्रों ने ही आवेदन किये गये जो कि लक्ष्य के तीस प्रतिशत ही थे। अन्य अल्पसंख्यक समुदायों में इसाई बौद्ध जैन और पारसी ने आवेदन किये ही नहीं हैं। इससे पूरा बजट ही लैप्स हो गया।
इसके क्या कारण हैं?
मैंने बताया कि पहला कारण तो शायद प्रचार और प्रसार का हो सकता है। दूसरा कारण यह भी देखने में आया है कि छात्रों के आवेदनों में भी कई कमियां रह जाती हैं। भारत सरकार के मानक और नियम कुछ कड़े भी हैं। अगर फार्म में कुछ गलतियां हों या स्पष्ट नहीं लिखा गया तो आवेदन निरस्त भी हो जाता है। इसको दूर करने के लिये अब हमने यह निर्देश दिये हैं कि जिस संस्थान या स्कूल में बच्चे अपना फार्म देते हैं तो उसके साथ एक डमी फार्म भी साथ में लगायें। इससे यह होगा कि फार्म में कोई कमी या जानकारी छूट गई या साफ नहीं लिखी गई तो अधिकारियों को फार्म को पूरा करने में कोई कठिनाई भी नहीं होगी और छात्रों को छात्रवृत्ति मिल जायेगी। मैं समझता हूं कि अब आगे से ज्यादा से ज्यादा बच्चे आवेदन करेंगे।
अल्पसंख्यकों की संपत्तियों को खुर्द-बुर्द करने का समाचार हमेशा सामने आते रहे हैं। उत्तराखण्ड के बक्फ बोर्ड की संपत्तियों के खुर्द- बुर्द होने के समाचार तो सबसे अधिक हैं। क्या अल्पसंख्यक आयोग इसे रोकने के लिये कोई कदम नहीं उठा सकता?
जो बात आप कर रहे हैं उसके लिये अलग से बोर्ड का गठन किया हुआ है और उसके अलग से अध्यक्ष भी हैं। उनकी नॉलेज में बात डालनी चाहिये। अगर यह लगता है कि इन मामलों में कहीं कुछ नहीं हो रहा है या फिर कोई कार्यवाही नहीं हो पा रही है तो उनको आयोग के पास आना चाहिये। हमारे पास पूरी अथॉरिटी है। हम कानूनी कार्यवाही करने के लिये सम्मन तक जारी कर सकते हैं। लेकिन आज तक आयोग के पास ऐसी कोई शिकायत नहीं आई। हमने इस बार अल्पसंख्यकों की संपत्तियों की सुरक्षा के लिये काम करने के निर्णय लिये हैं। अब तक केवल मुस्लिम वर्ग की संपत्तियों के लिये ही वफ्फ बोर्ड लेकिन अब हम ईसाइयों की संपत्तियों की भी सुरक्षा के लिये भी एक बोर्ड बनाने के लिये सोच रहे हैं। आजकल ईसाइयों की संपत्तियों को बेचे जाने और खुर्द-बुर्द किये जाने की बातें सामने आ रही हैं। हम ये चाहते हैं कि इनकी की सभी संपत्तियां सुरक्षित रहें। उनके चर्च और अराधना स्थलों को भी वफ्फ बोर्ड की ही तरह से बचाया जा सके।
भारत सरकार ने आरटीई यानी शिक्षा का अधिकार का कानून बनाया है। अल्पसंख्यकों के शिक्षण संस्थानों को इस कानून के दायरे से अलग रखा गया है। राज्य में अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों की अच्छी खासी तादाद हैं। अगर इनमें भी गरीब बच्चों को शिक्षा मिले तो समाज का ही फायदा होगा। इस मामले में आपके निजी विचार क्या हैं?
हां यह ठीक है कि माइनारटीज वाली संस्थायें जो गवर्मेंट एडेड नहीं हैं उनमें आरटीई लागू नहीं है। मेरा मानना है कि सामाजिक नैतिकता के आधार पर अपनी स्वेच्छा से कोई भी संस्थान आरटीई लागू कर सकता है। उसे कोई नहीं रोक सकता। अभी देहरादून में कई विवाद हुये हैं जैसे कि बच्चे को फेल कर दिया गया जबकि एक्ट के तहत आठवीं तक के बच्चे को फेल नहीं किया जा सकता। इस पर बड़ा विवाद भी हुआ तो मैंने सभी अल्पसंख्यक स्कूलों के साथ मीटिंग की और कहा कि भले ही आप एक्ट में नहीं आते हों लेकिन आपका कर्तव्य बनता है उसे लागू करें। जो बच्चे कमजोर हैं उन पर खास ध्यान दें। कम से कम जितना समाज का भला कर सकते हैं उसे करें। वैसे इस पर भी कई राज्य सरकारों ने संशोधन के लिये भारत सरकार को लिखा है क्योंकि फेल न करने से बच्चे को लगता है कि उसने तो फेल होना ही नहीं है तो पढ़ाई क्यों करे। इसे आठवीं की बजाय पांचवीं तक करने का प्रस्ताव दिया गया है। मेरा मानना है कि कम से कम इसे तो अल्पसंख्यक संस्थान स्वेच्छा से लागू कर सकते हैं।
अल्पसंख्यक आयोग के बारे में यह माना जाता है कि इसमें अधिकतर एक धर्म विशेष को लेकर ही योजनायें बनाई जाती हैं। जबकि अन्य कई धर्म भी अल्पसंख्यक श्रेणी में हैं। क्या इसमें सभी अल्पसंख्यक धर्मों के लिये भी उतनी ही पारदर्शिता है जितना मुस्लिम धर्म को लेकर?
ऐसा बिल्कुल भी नहीं है और जो ऐसा कहता है उसे पता नहीं हैं। हमारे देश में सिक्ख बौद्ध पारसी ईसाई और जैन भी संविधान के तहत अल्पसंख्यक धर्मों की श्रेणी में हैं। मुस्लिम धर्म की आबादी अधिक है। उनका अन्य धर्मों की अपेक्षा जनसंख्या अनुपात अधिक हैं। लेकिन आज भी मुस्लिम धर्म शिक्षा और रोजगार की दृष्टि से अति पिछड़ा हुआ है। सच्चर कमेटी ने इस पर अपनी जो रिपोर्ट दी थी उसने माना है कि आज भी अन्य अल्पसंख्यक समाजों की अपेक्षा मुस्लिम समाज बेहद पिछड़ा हुआ है। जबकि अन्य अल्पसंख्यक धर्मों को मानने वालों का स्तर मुस्लिमों से बहुत बेहतर है। इसी कारण अधिकतर योजनायें मुस्लिम धर्म को लेकर बनाई गई हैं। अन्य धर्मों को भी इसमें पूरी तरह जोड़ा हुआ है लेकिन वे सभी सरकार से मदद लेने में ज्यादा कोशिश नहीं करते और मुस्लिम अपने कारणों से करते हैं। इसी से सबको लगता होगा कि अल्पसंख्यक आयोग केवल मुस्लिमों के लिये है जबकि ऐसा कतई नहीं है।
सभी अल्पसंख्यक धर्मों को मानने वाले सरकार की परिवार नियोजन योजना को खुशी-खुशी अपनाते रहे हैं लेकिन मुस्लिम समाज इससे अपने को दूर ही रखता है जबकि अन्य सरकारी योजनाएं जिसमें मदद मिलती हैं उसे पाने के लिये हर कोई तैयार रहता हैं। क्या आपको यह विरोधाभास नहीं लगता?
इन सबका एक ही कारण है शिक्षा का अभाव। शिक्षा से ज्ञान बढ़ता है। आदमी की जागरूकता बढ़ती है और समाज तरक्की करता है। अभी भी मुस्लिम समाज में शिक्षा का बहुत अभाव है जिसे हर संभव दूर करने का प्रयास किया जा रहा है। शिक्षा के साथ सामाजिक कर्तव्य और दायित्व को भी बताने और जागरूक करने के प्रयास गम्भीरता से चल रहे हैं। अब जो भी पढ़े-लिखे मुस्लिम युवा हैं वे सभी परिवार नियोजन कार्यक्रम को स्वेच्छा से अपना रहे हैं। समय जरूर लगेगा लेकिन धीरे-धीरे इस पर भी गम्भीरता से जुडं़ेगे।
अभी राज्य सरकार ने अनुसूचित जाति और जनजाति के लिये दिये जा रहे फण्ड को पूरा खर्च करने का कानून बनाया है। क्या राज्य में अल्पसंख्यकों के लिये मिलने वाले फण्ड को भी इसी तरह से कानून बनाकर हर हाल में खर्च करने का कोई प्रयास किया जायेगा।
अभी ऐसा कोई विचार नहीं है लेकिन हमने यह मांग की है कि जिस तरह से भारत सरकार एससी/एसटी के लिये नियोजन के तहत हर विभाग में अलग-अलग फण्ड रखती है उसी तरह से राज्य सरकार भी हर वर्ष अपने बजट में चाहे जितना भी प्रतिशत बजट रखे उसे उसी तरह से हर विभाग में अल्पसंख्यकों के लिए करना चाहिए। इससे हमें उन खास क्षेत्रों में जहां अल्पसंख्यकों की आबादी ज्यादा है वहां इस फण्ड से मूलभूत सुविधायें जैसे सड़क पानी बिजलीस्कूल और रोजगार के साधन जुटाने में मदद मिलेगी। वैसे तो हर विभाग अपने हिसाब से काम करता ही है लेकिन अल्पसंख्यकों के हिसाब से विभागीय फण्ड को तो उन क्षेत्रों में लगाए जाएं तो काम और भी अच्छा होगा।
आपको अल्पसंख्यक आयोग का अध्यक्ष बने हुये तकरीबन तीन माह का समय हो चुका है अभी तक इसकी पूरी बॉडी नहीं बनाई गई है। यह देरी क्यों?
ऐसा नहीं है पूरी बॉडी बनाई जा चुकी है। सात सदस्य नामित किये जा चुके हैं जिनके साथ एक बार मीटिंग भी हो चुकी है।
पूर्व अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष सुखदेव सिंह नामधारी पर कई गम्भीर आरोप लगे हैं। राज्य सरकार ने उनको पद से हटाया था। इस तरह के आरोपों से क्या आयोग की छवि खराब नहीं हुई है?
पहले क्या हुआ और क्यों हुआ मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। लेकिन मेरा मानना है कि आयोग जैसे पद पर बैठने वाले व्यक्ति को अपना चरित्र साफ-सुथरा रखना चाहिये। यह पद कोई सामान्य और राजनीतिक पद नहीं है। यह एक पूर्ण गरिमामय पद है जिसको एक न्याय का भी अधिकार मिला हुआ है। इसलिये हमारी सबसे पहली प्राथमिकता यह बनती हैं कि हम अपनी और अपने पद की गरिमा को समाज में बनाये रखें और इस पर किसी तरह का कोई विवाद और आरोप न लगने दें। मैंं इस पद पर कोई राजनीति करने के लिये नहीं आया हूं। अगर मुझे लगता है कि मेरे द्वारा इस पद की गरिमा को ठेस पहुंच रही है या मैं अपने काम पूरी निष्ठा और ईमानदारी से नहीं कर पा रहा हूं तो मैं तुरंत पद से इस्तीफा दे दूंगा। में इस पद पर हर आम आदमी के हित के लिए बैठा हूं और मेरे पास जो भी मामला आयेगा मैं उसे बगैर किसी दबाव और राजनीतिक हस्तक्षेप के पूरा करने का विश्वास देता हूं।
कृष्ण कुमार |