अग्नि केवल तुम्हारे जठर में नहीं
अजंता देव
जन्म % ३१ अक्टूबर
जन्म स्थान % अजंता जोधपुर के एक प्रवासी बंगाली परिवार में पैदा हुईं। राजस्थान यूनिवर्सिटी से १९८० में एमए किया। शास्त्रीय संगीत ¼गायन½] नृत्य] चित्रकला] नाट्य और अन्य कई कलाओं में गहरी रुचि रही और सक्रिय भी रहीं।
संपर्क % ६८/१७९] प्रताप नगर] सांगानेर] जयपुर- ३०२ ०३०
चलभाष % ०९७८३०६१९६०
कविता संग्रह % एक नगर वधू की आत्मकथाकुछ प्रतिनिधि रचनाएं % मेरा मिथ्यालय] विपरीत रसायन] एक माहिया] रामरसोई] कैवल्य] तुम्हारा हृदय] अन्य जीवन से] त्रिभंग] युद्ध न संधि]मेरी स्याही] रंग है री] अनिकेत] अर्द्ध्रसमाप्त जीवन।
विपरीत रसायन
स्त्रियां नहीं बन सकतीं शराबी
यह कहा होगा कवि ने
मेरे हाथ से पीकर
अगर बन जातीं स्त्रियां शराबी
तो पिलाता कौन
मेरे प्याले भरे हैं मद से
केसर-कस्तूरी झलझला रही है
वैदूर्यमणि-सी
कीमियागर की तरह
मैं मिला रही हूं
दो विपरीत रसायन
विस्फोट होने को है
मैं प्रतीक्षा करूंगी तुम्हारे डगमगाने की।
तुम्हारी जिह्वा
ठांव-कुठांव टपकाती है लार
इसे काबू करना तुम्हारे वश में कहां
तुमने चख लिया है हर रंग का लहू
परंतु एक बार आओ
मेरी रामरसोई में
अग्नि केवल तुम्हारे जठर में नहीं
मेरे चूल्हे में भी है
यह पृथ्वी स्वयं हांडी बनकर
खदबदा रही है
केवल द्रौपदियों को ही मिलती है
यह हांडी
पांच पतियों के परमसखा से।
कैवल्य
झुलनिया के एक आद्घात से
पहुंचाऊंगी पाताल
सुलाऊंगी शेषनाग के फन पर
डोलेगी धरा
डोलेगी तुम्हारी देह
मेरी लय पर
कभी पैंजनिया कभी पायलिया झंकारेगी
परंतु कोई नहीं आएगा
इस एकान्त में
जिसे रचा है मैंने
अंधकार के आलोक से
रुको नहीं चले चलो
भय नहीं केवल लय
मैं नहीं तुम कहोगे कैवल्य
मैंने तो गढ़ा है इसे
मैं जानती हूं इसका मामूली अर्थ
मैं हर रात यह प्रदान करती हूं।
तुम्हारा हृदय
क्या तुम्हारा हृदय तुम्हारा है
अब भी
जबकि तुम्हारे सामने मैं हूं
जो अलक-पलक चुरा लेती है
हृदय ही नहीं संपूर्ण पुरुष
सप्तपदी में ऐसे ही नहीं कहती धर्मपत्नी
यद इयं हृदयं तव
तद इयं हृदयं मम
उसे हर युग में आना पड़ता है
मेरे पास
प्राप्त करने तुम्हारा हृदय।
अन्य जीवन से
किस लोक के कारीगर हो
कि रेशे उधेड़ कर अंतरिक्ष के
बुना है पटवस्त्र
और कहते हो नदी-सा लहराता दुकूल
होगा नदी-सा
पर मैं नहीं पृथ्वी-सी
कि धारण करूं यह विराट
अनसिला चादर कर्मफल की तरह
मुझे तो चाहिए एक पोशाक
जिसे काटा-छांटा गया हो मेरी रेखाओं से मिलाकर
इतना सुचिक्कन कि मेरी त्वचा
इतने बेलबूटे कि याद न आए
हतभाग्य पतझड़
सारे रंग जो छीने गए हों
अन्य जीवन से
इतना झीना जितना नशा
इतना गठित जितना षड्यंत्र
मैं हर दिन बदलती हूं चोला
श्रेष्ठजनों की सभा में
आत्मा नहीं हूं मैं
कि पहने रहूं एक ही देह
मृत्यु की प्रतीक्षा में।
त्रिभंग
हर कोई वही देखता है
जिस ओर संकेत करती हैं
मेरी अंगुलियां
और मैं
उत्तान बाहें फैलाए रह जाती हूं त्रिभंग
हंसिनी] मयूरी या मृगी
इन्हें क्या देखना
ये तो नहीं जानतीं स्वयं को
कौतुक से देखती रहतीं हैं मुझे
जब मैं डिखाती हूं
इनसे भी अदभुत्त इनकी ही भंगिमा
अप्सराएं आती हैं मेरी सभा में
सीखने वह दिव्य संचालन
प्रेम प्रारंभ में
दो देहों का नृत्य ही तो है।
युद्ध न संधि
मेरा हर क्षण बीतता है आमने-सामने
मैं और हवा होते हैं सम्मुख
बन जाता है प्रलयंकारी चक्रवात
सामना करते हैं जल और मैं
समुद्र की तरंगे तट छोड़ देती हैं
मेरे और मेद्घों के द्घर्षण से
प्रकट होती है दामिनी
सुलग उठती है लकड़ी की तरह सूखी लालसा
पर आश्चर्य!
नहीं होता कुछ भी
जब मेरे सामने होते हो तुम
न युद्ध न संधि
इस तरह बीतता जाता है वह क्षण
जैसे ठोकर के बाद का संतुलन
इसी क्षण
ढल जाता है सूर्य
बजने लगता है युद्ध समापन का तूर्य
युद्ध का कारण याद नहीं आता योद्धा को
कौंध जाता है इसी क्षण
एक स्तब्ध पराक्रम
ध्वस्त करता हुआ
अभ्यास के कौशल को।
मेरी स्याही
सारे उपादान उपस्थित हैं
मैंने ले लिया है एकांतवास
प्रहरियों ने कर लिए हैं द्वार बंद
विघ्न का कोई अवसर नहीं
कलंक से भी अधिक
कालिमा है मेरी स्याही में
अपमान से अधिक
तीखी है नोक कलम की
प्रशंसा से अधिक चिकना है कागज
मंत्रबिद्ध की तरह मुग्ध हूं
स्वयं की प्रतिभा पर
फिर भी क्या है
जो रोक रहा है मुझे
न भूतो न भविष्यति रचने से
क्यों अक्षरों के द्घूम
लगते हैं भूलभूलैया से
यह कौन सा तिर्यक कोण है
जहां अपनी ही आंख
दूसरे की हुई जाती है
रंग है री
कैसी आंधी चली होगी रात भर
कि उड़ रही है रेत ही रेत अब तक
असंख्य पदचिह्नों की अल्पना आंगन में
धूम्रवर्णी व्यंजन सजे हैं चौकियों पर
पूरा उपवन श्वेत हो गया है
निस्तेज सूर्य के सामने उड़ रहे हैं कपोत
युवतियां द्घूम रही हैं
खोले हुए धवल-केश
वातावरण में फैली है
वैधव्य की पवित्रता
कोलाहल केवल बाहर है
आज रंग है री मां! रंग है री।
अर्द्धसमाप्त जीवन
क्या यही मृत्यु है
जबकि सब-कुछ रह गया पहले सा
मैं भी मेरा जीवन भी
रह गया लोकस्मृति में
आशा रह गई पुनर्जन्म की
खीज रह गई कुछ नहीं पाने की
शरीर गया पर रह गया अशरीर
पृथ्वी रह गई विहंगम कोण से दिखती हुई
रह गई पिपासा जो नहीं मिटेगी जल से
क्षुधा स्वयं को खा रही है
निद्रा द्घेर रही है चेतना को
महास्वप्न में दिख रहा है तुम्हारा चेहरा
मेद्घ में ओंति की तरह
अनहद के पार से
पुकार रही हूं तुम्हें
चातक की तरह नहीं
अपनी तरह
मृत्यु भी पूर्ण नहीं कर सकी
एक अर्द्धसमाप्त जीवन।
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