वो शब को देर तक सोया नहीं + + +
१९ अप्रैल १९२९
२६ दिसंबर २००६
मुनीर नयाजी को उर्दू और पंजाबी भाषा की शायरी पर महारत हासिल थी। उनका असली नाम मुनीर अहमद था। मुशायरों में अक्सर उनके निराले अंदाज को सुनकर लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे। मुनीर ने सन १९४९ में ^सात रंग^ नाम की मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया था। कुछ समय बाद वह फिल्म जगत से जुड़े और अनेकों फिल्मों में गाने लिखे। उन्होंने फिल्म ^शहीद^ फिल्म के लिए ^उस बेवफा का शहर है^ गाना लिखा] जो काफी मशहूर रहा। इसे १९६२ में नसीम बेगम ने गाया था।
मुनीर का जन्म १९ अप्रैल] १९२७ को होशियारपुर] पंजाब (भारत) में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा साहिवाल जिले में पूरी हुई। बंटवारे के बाद वह पाकिस्तान चले गए। इसलिए उनकी उच्च शिक्षा दयाल सिंह कॉलेज] लाहौर से पूरी हुई। पाकिस्तान में वह साहिवाल में बस गए थे। शायर इफ्तिकार आरिफ मुनीर नियाजी के बारे में लिखते हैं कि मुनीर साहब उन पांच उर्दू शायरों में से एक हैं] जिनका कई यूरोपियन भाषाओं में खूब अनुवाद किया गया है। मुनीर को मार्च २००५ में ^सितार-ए-इम्तियाज^ के सम्मान से नवाजा गया। मुनीर नियाजी के ११ उर्दू और चार पंजाबी संकलन प्रकाशित हैं] जिनमें ^तेज हवा और फूल^] ^पहली बात ही आखिरी थी^ और ^एक दुआ जो मैं भूल गया था^ जैसे मशहूर नाम शामिल हैं।
गम की बारिश ने भी तेरे नक्श को धोया नहीं
तूने मुझको खो दिया] मैंने तुझे खोया नहीं
नींद का हल्का गुलाबी सा खुमार आंखों में था
यूं लगा जैसे वो शब को देर तक सोया नहीं
हर तरफ दीवार-ओ-दर और उनमें आंखों का हुजूम
कह सके जो दिल की हालत वो लबे-गोया नहीं
जुर्म आदम ने किया और नस्ले-आदम को सजा
काटा हूं जिंदगी भर मैंने जो बोया नहीं
जानता हूं एक ऐसे शख्स को मैं भी ^मुनीर^
गम से पत्थर हो गया लेकिन कभी रोया नहीं
हमेशा देर कर देता हूं मैं
जरूरी बात कहनी हो
कोई वादा निभाना हो
उसे आवाज देनी हो
उसे वापस बुलाना हो
हमेशा देर कर देता हूं मैं
मदद करनी हो उसकी
यार का ढांढ़स बंधाना हो
बहुत देरीना रास्तों पर
किसी से मिलने जाना हो
हमेशा देर कर देता हूं मैं
बदलते मौसमों की सैर में
दिल को लगाना हो
किसी को याद रखना हो
किसी को भूल जाना हो
हमेशा देर कर देता हूं मैं
किसी को मौत से पहले
किसी गम से बचाना हो
हकीकत और थी कुछ
उस को जा के ये बताना हो
हमेशा देर कर देता हूं मैं
जिंदा रहें तो क्या है जो मर जाएं हम तो क्या
दुनिया में खामोशी से गुजर जाए हम तो क्या।
हस्ती ही अपनी क्या है जमाने के सामने]
एक ख्वाब हैं जहां में बिखर जाएं हम तो क्या।
अब कौन मुंतजिर है हमारे लिए वहां]
शाम आ गई है लौट के ?kj जाए हम तो क्या।
दिल की खलिश तो साथ रहेगी तमाम उम्र]
दरिया-ए-गम के पार उतर जाए हम तो क्या।
फूल थे बादल भी था और वो हसीं सूरत भी थी।
दिल में लेकिन और ही एक शक्ल की हसरत भी थी।
जो हवा में ?kj बनाए काश कोई देखता]
दश्त में रहते थे पर तामीर की आदत भी थी।
कह गया मैं सामने उस के जो दिल का मुद्द^आ]
कुछ तो मौसम भी अजब था कुछ मेरी हिम्मत भी थी।
अजनबी शहरों में रहते उम्र सारी कट गई]
गो जरा से फासले पर ?kj की हर राहत भी थी।
क्या कयामत है मुनीर अब याद भी आते नहीं]
वो पुराने आश्ना जिन से हमें उल्फत भी थी।
कभी किसी बाग के किनारे
उगे हुए पेड़ के सहारे
मुझे मिली हैं वो मस्त आंखें
जो दिल के पाताल में उतर कर
गए दिनों की गुफा में झोंके
कभी किसी अजनबी नगर में
किसी अकेले उदास ?kj में
परीरुखों की हसीं सभाएं
कोई बहार-ए-गुरेज पाएं
कभी सर-ए-रह सर-ए-कू
कभी पस-ए-दर कभी लब-ए-जू
मुझे मिली हैं वही निगाहें
जो एक लम्हे की दोस्ती में
हजार बातों को कहना चाहें
वो दिन भी आने वाला है
जब तेरी इन काली आंखों में
हर जज्बा मिट जाएगा
तेरे बाल जिनहें देखें तो
सावन की द्घनद्घोर द्घटाएं
आंखों में लहराती हैं
होंठ रसीले
ध्यान में लाखों फूलों की
महकार जगाएं
वो दिन दूर नहीं जब इन पर
पतझड़ की रुत छा जाएगी
और उस पतझड़ के मौसम की
किसी अकेली शाम की चुप में
गये दिनों की याद आएगी
जैसे कोई किसी जंगल में
गीत सुहाने गाता है
तुझ को पास बुलाता है
डर के किसी से छुप जाता है जैसे सांप खजाने में
जर के जोर से जिंदा हैं सब खाक के इस वीराने में
जैसे रस्म अदा करते हों शहरों की आबादी में
सुबह को ?kj से दूर निकलकर शाम को वापस आने में
नीले रंग में डूबी आंखें खुली पड़ी थीं सब्जे पर
अक्स पड़ा था आसमान का शायद इस पैमाने में
दिल कुछ और भी सर्द हुआ है शाम-ए-शहर की रौनक में
कितनी जिया बेसूद गई शीशे के लफ्ज जलाने में
मैं तो ^मुनीर^ आईने में खुद को तक कर हैरान हुआ
ये चेहरा कुछ और तरह था पहले एक जमाने में
उस सिम्त(१) मुझ को यार ने जाने नहीं दिया
एक और शहर-ए-यार में आने नहीं दिया
कुछ और वक्तचाहते थे कि सोचें तेरे लिए]
तूने वो वक्त हम को जमाने! नहीं दिया
मंजिल है इस महक की कहां किस चमन में है]
इस का पता सफर में हवा ने नहीं दिया
रोका अना ने काविश-ए-बेसूद से मुझे]
उस बुत को अपना हाल सुनाने नहीं दिया
है जिस के बाद अहद-ए-जवाल-आश्ना ^मुनीर^]
इतना कमाल हम को खुदा ने नहीं दिया
रात बेहद चुप है
और उस का अंधेरा सुर्मगीं
शाम पड़ते ही दमकते थे जो रंगों के नगीं
दूर तक भी अब कहीं
उस का निशां मिलता नहीं
अब तो बढ़ता आयेगा
द्घंद्घोर बादल चाह का
उस में बहती आयेगी
एक मद्भरी मीठी सदा
दिल के सूने शहर में गूंजेगा नग्मा चाह का
रात के पर्दे में छुप कर खूं रुलाती चाहतो
इस कदर क्यों दूर हो
मुझ से जरा ये तो कहो
मेरे पास आकर कभी मेरी कहानी भी सुनो
सिस्कियां लेती हवाएं कह रही हैं-^चुप रहो^
प्रस्तुति % सिराज माही |